अभी मुझमें बाकी है,
इंसान बनने का हुनर,
शायद तुम इंसान बन चुके हो
औंधे मुंह तगमे ने जो अहसास दिलाया है,
गुरुर में मगरूर,
दूर बैठे किसी ने कुछ खोया है,
तभी तो,
ये मुकाम तुमने पाया है,
सोचा याद दिला दूँ,
वो अहसास जो गैरत ने ही दिलाया है।
शिखरारुड़ हो जो ऐ मेरे अपने,
कितने ही ज्ञानवान ने ,
इस काबिल तुम्हे बनाया है,
चकाचौंध से धुत्त नशे में,
विजय कामना को कितनों ने ही शंख बजाया है।
अभी तो,
अभी तो , बाकी है पाने को मंजिल,
जिसका दिवास्वप्न हमने ही दिखाया है,
आओगे पास हमारे वापस,
करने को विमर्श,
भास्कर नवप्रत्यंचा की खातिर,
तत्परता से परिपूर्ण समर्पित हैं,
पुनः परमवैभव के पुनर्निर्माण को,
तल्लीनता से कर्म करेंगे,
जैसा पुर्वांचल में करके दिखलाया है।
अभी तो मुझमें बाकी है,
इंसान बनने का हुनर।।
डॉ सत्यम भास्कर "भ्रमरपुरिया"।
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