चलो अब कुछ कम बोलते हैं
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साथ -साथ जो टहलते सदा ही,
मन भी उनके कहीँ ,दूर डोलते हैं ।
झूँठ तो बहुत बोलते हैं आशक्त हो ,
विरक्त हो लोग ,सच बोलते हैं ।।
मित्र भी हम कदम जैसे दिखे ,
कभी अमृत कभी विष घोलते हैं ।
अपना बनकर,रहते पराये से ,
भ्रम के यूँ ही ,राज खोलते हैं ।।
दिखते बहार से हमराग बन सादगी लिए ,
फिज़ाओं में कुछ ज्यादा झोलते हैं ।
धन बंटेगा भाइयों में ही पता है ,
फिर भी ले तराज़ू तोलते हैं ।।
फर्ज चुकाते ,अपना समझ कर हम,
वे ही खुद अपनी ,राह ढोलते हैं ।
बहुत बोला कुछ ज्यादा ही "अनुज",
चलो अब कुछ कम बोलते हैं ।।
डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज"
अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
Badlavmanch
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