महाकाव्य रचना ""यादें""

'''महाकाव्‍य रचना''    ''यादें,,,,,,,

यादों का क्‍या है,,,,,,,,
कोई ताज़ी तो
कोई पुरानी होती हैं,,,
कोई भूली-बिसरी तो
कोई आनी-जानी होती हैं,,,
कोई अपनी तो
कोई बेगानी सी होती है,,,
कोई दर्दशुदा तो
कोई दर्द से बेगानी सी होती हैं,,,
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कैसे भुला दूं, उन स्‍वर्णिम यादों को
जो पल आपके संग गुज़ारे हैं,,,
दुनिया में वे अनमोल लम्‍हे
मुझे अपनी जान से भी प्‍यारे हैं,,,
भुलाउॅ तो कैसे भुलाउॅ
भुलाने वाली बात ही नहीं,,,
बिन आपकी लोरी सुने
गुज़री हो,,कोई ऐसी रात नहीं,,,
नन्‍हीं नादान को पलकों पर बिठाया
उठते-गिरते कदमों को संभलना सिखाया
समझ नहीं आता, इसे मॉ की ममता कहूं या
नन्‍हीं कोंपलों को मिली वटवृक्ष की छाया,,
जब भी परे‍शानियों ने मुझे घेरा
वहीं मिला आपका प्रीत भरा साया,,,,
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आपकी भींनी सी खुशबू से 
जैसे घर-आंगन महकता था,,,,,
आपकी प्‍यारी खिलखिलाहट से 
घर का कोना-कोना चहकता था,,,,
वो आपका ऑफिस से घर आते ही
रोज़ लांग ड्राइव पर ले जाना,,
गलतियां लाख हो मेरी पर
आपका मुझे पुचकारकर समझाना,,
जो कभी असफलता हाथ आई तो
आपका मेरी हौसलाअफ़जाई करना,,,,,
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पापा,,, आज भी याद हैं मुझे
मेरी तबियत की खैरियत के लिए
आपका अल-सुबह नंगे पांव मंदिर जाना,,,
जब तक नींद के आगोश मे न जाउं
वो आपका मीठी-मीठी लोरिया गुनगुनाना,,,
सरप्राइज़ देकर हर मौके को
मस्तियों से खुशनुमा सा बनाना,,,
क्रिसमस मेंसेंटाक्‍लॉज बनकर 
तकिये के नीचे आपका गिफ्ट छुपाना,,,
मेरी खिलखिलाहट सुनने के लिए
शक्‍कर का बोरा भी बन जाना,,,,,
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याद आते हैं वे पल जब
खफ़ा मॉ को भी आप 
पल भर में गुदगुदा जाते थे,,,,
न जानें कैसे चुटकुले सुना
लोटपोट कर जाते थे ,,,,,
प्रेम- प्‍यार से घुमा-फिराकर
अपनी हर बात मनवाते थे,,,
घर का दामन जाने कैसे
खुशियों से भर जाते थे,,,,
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पर कहते हैं न
दामन खुशियों से पटा पड़ा तो
लग जाती हैं किसी की बुरी नज़र,,,,,
ऐसे ही हम पर न जानें क्‍यों
बरस पड़ा दुखों का बड़ा कहर,,,,,
आप असमय ही हमें
बीच मझधार में छोड़ गये,,,
कभी भी न भरने वाले
रिक्‍त स्‍थान को छोड़ गयें,,,
हर-दिन, हर-पल याद आपकी सताती थी
''पापा जल्‍दी आ जाना'',,यही एक गीत मैं गाती थी,,,
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बड़ी इतनी भी न थी मैं कि
समझ सकुं दुनियादारी की बड़ी-बड़ी बातें
बस इतना ही समझ सकी
अंतिम इच्‍छा पूरी करने मां ने 
दरकिनार की समाज की रीति-रिवाजें,,,
अंतिम संस्‍कार नहीं हुआ चूंकि
आपने जो किया था अंगदान,,,,
ऐसे पावन निर्णय से मिला था
समाज में कई लोगों को जीवनदान,,,
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बिन आपके जीवन बोझिल लगता था,,
इक इक पल युगों सा लगता था,,,,
पर आपने तो बहादुरी से जीना सिखाया था,,
सो अपनी भावाभिव्‍यक्ति के लिए
कागज-कलम को अपना मित्र बनाया था,,
यादों को पलकों में छिपाना सीख गई हूं,,
कल्‍पनाओं को कागज पर कलम से 
हू-बहू उकेरना मैं अब सीख गई हूं,,,,
दुखी नहीं हूं क्‍योंकि मेरी अंजलि में
यादों का अनमोल खज़ाना हैं,,,
आपके संग बिताया हर लम्‍हा
आज़ भी मेरे लिए बहुत प्‍यारा हैं,,,,,
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अंजली खेर
9425810540
भोपाल

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3 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर तरीके से यादों का विश्लेषण, पढ़ते पढ़ते अांखों के सामने यादों का समंदर उमड़ पडा़. अभिनंदन !

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  2. अंजलि जी आपकी कविता ह्र्दय में उतर गई

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