लघुकथा
प्यार को प्यार हीं रहने दो
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"रूपा, मैं तुम्हें यह एक पत्र दे रहा हूँ, इसे ज़रा पढ़ तो लो। इसे पढ़कर हमें अतिशीघ्र प्रतिक्रिया भी दो। प्रतिक्रिया देने में विलंब नहीं करना।"
यह बातें रूपेश ने एक पत्र देते हुए रूपा से कही।
चौकते हुए रूपा ने कहा "क्या है इसमें। "
रूपेश ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि "पहले इसे पढ़ तो लो,बाद में सवाल जवाब करना। "
पत्र खोलकर रूपा पढ़ने लगी ।पत्र में लिखा था " कैसे मैं कह दूँ, मुझे तुमसे मोहब्बत है,यह कहा नहीं जाता, यह कहा नहीं जाता, तुम मेरी आँखों से पूंछ लो,तेरा दिल क्या कह रहा।"।
पत्र पढ़ने के बाद रूपा ने रूपेश से कहा "हमें अफसोस के साथ तुम्हें कहना पड़ रहा है कि मैं अब तुमसे प्यार नहीं करती हूँ। मैं अब मनीष से प्यार करती हूँ जो सरकारी नौकरी करता है,उसके पिता जी भी सरकारी नौकरी करते हैं। मैं शादी भी मनीष से हीं करूंगी।
तुम्हारे पास क्या है रूपेश,जिसके बल पर मैं तुमसे प्यार करूंगी, शादी करूंगी। तुम ठहरे एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले एक मामूली आदमी। दो लाइन क्या लिखने लगे ,दो चार लाइन क्या शायराना अंदाज में बोलने लगे कि अपने आपको बहुत बड़ा आदमी समझने लगे। जिन्दगी शब्दों एवं बातों से नहीं चलती है रूपेश बाबू,रूपये पैसों से चलती है जो तुम्हारे पास नहीं है। "
रूपेश ने रूपा से रुआंसा होकर कहा "तो क्या मुझसे हॅस हॅस कर बातें करना, आते-जाते खिड़कियों से निहारना और मेरा इंतजार करना सब दिखावा, छलावा और झूठा था। सब कुछ बेकार था।"
"नहीं, सब कुछ झूठा नहीं था। पर यह भी सच है कि शुरू में मैं तुम्हें मन हीं मन खूब चाहती थी, प्यार करती थी पर अब मैं तुम्हें नहीं चाहती हूँ, क्योंकि अब मेरे जीवन में मनीष आ गया है ,जो अब मेरा भविष्य है,मेरा प्यार है ,क्योंकि वह सरकारी नौकरी करता है जो तुम्हारे पास नहीं है ।" रूपा ने बड़े ही सफाई से यह बात रूपेश से कही।
रूपेश ताली मारते हुए रूपा से कहा " वाह रूपा ,वाह ! तूने तो प्यार की परिभाषा ही बदल दी । तुमने तो अपने स्वार्थ को प्यार का एक अलग ही नाम दे दिया। अरे रुपा, तुम प्यार को क्या जानो। तुम प्यार को प्यार हीं रहने दो, इसे बदनाम नहीं करो ।"
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अरविन्द अकेला
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