अच्छी लगने लगी है ।
कैफियत मांगने वालों की वो भीड़
अब छंटने लगी है।।
पहले जो सूरतें हरदम,मुझे घेरे रहती थीं
दिल पे जो नक्श बहुत गहरे,खुदे रहते थे
अब वही यादें किसी टीन के बक्से में ,
फटी किताबों की तरह रहने लगी हैं।।
अब तो मेरी खामोशियां मुझे ........
फटी किताबों पर जमी धूल झाड़ कर कभी इसमें छपे हर्फ़ मैं पहचान लेती हूं,
उनकी छीली सूरतों पर उंगलियां फिराकर
उन पर बीते वक्त का हाल जान लेतीहूं। उनकी रोती आंखों से आंसू पोंछकर , गाहे-बगाहे उनको बाहों में थाम लेती हूं।।
अब तो मेरी खामोशियां.......
यह मेरी मौलिक रचना है और सभी अधिकार मेरे पास सुरक्षित है
जयंती सेन 'मीना' नई दिल्ली
9873090339.
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