कवयित्री पूर्णिमा रॉय जी द्वारा 'प्रेम' विषय पर कविता

*प्रेम!*

प्रेम के हैं रूप कई ।
है प्रेम न केवल नर नारी का,
यह प्रेम है संपूर्ण जगत का ।
प्रेम की कोई एक न समझो परिभाषा,
प्रेम से संसार को है अपार अभिलाषा।

जो बैठी मैं करने प्रेम को परिभाषित,
तो पाया सम्पूर्ण सृष्टि है इस पर आश्रित।

जो प्रकृति और पुरूष को जोड़े वह प्रेम,
जो परमात्मा को आत्मा से मिलाए वह है प्रेम,
जो धरती अंबर मे है वह प्रेम,
जो पर्वत को समतल से है वह प्रेम,
जो माँ का पुत्र से हो वह प्रेम,
जो पिता का पुत्री से हो ,
 और भाई का बहन से हो,
जो चिड़ियां और नील गगन में हो वह भी प्रेम है।

प्रेम; जो नदी को किनारे से मिलने कि बढ़ाता आस,
मिलकर भी न मिल पाते दोनों,
और न बुझती, दोनों कि प्यास।

प्रेम; जो दिया और बाती में हो;
जिनका उद्देश्य मात्र सृष्टि को उज्ज्वल करना ,
दूसरों को देकर प्रकाश है बाती को जल जाना ।
जल कर भस्म हो जाती है वह  निःस्वार्थ भाव से; यही है प्रेम ।
जो मछली को है जल से,मानुष को थल से,
माली को बाग़ से,स्त्री को सुहाग से,
किसान की फसल से, जौहरी की असल से ,
जो चकोर को चन्दा से ,
वही  है प्रेम।
यह प्रेम ; जिसका उद्देश्य ही रहा निः स्वार्थ त्याग ।
यह जान कर कि वह ना है मिलने वाला , 
वही है असल अनुराग।

असल प्रेम देखा मैंने माँ  का; 
जो जानती है कि एक दिन बेटी हो जाएगी विदा,
कह कर सबको अलविदा।
जो जानती है कि पुत्र न बनेगा उसके बुढ़ापे की लाठी,
और न देगा उसे सुख आलिशान भरी कोठी।
माँ फिर भी प्रेम किए जाती है,
जीवन संतान के लिए जिये जाती है।
उसी निः स्वार्थ भाव से,
जैसा प्रेम है पत्तों का पेड़ों से,
जो जानते हैं कि एक दिन सूख कर टहनियों से होना ही है अलग
उसी निः स्वार्थ भाव से ,
जैसे प्रकाश का उजाला से,
सफेद को काला से,
उस अम्बर को रँग नीला से।

भक्त को भगवान से, संगीत को तान से
पुरूष को गुमान से, स्त्री को शान से। 
यही है प्रेम ।।


पूर्णिमा रॉय
बर्द्धमान प.बं

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