बेटी का सुख

लघुकथा 
 शीर्षक-- बेटी का सुख

"अरे-अरे !देखो!
रुको, रुको!!
 चीखते हुए पुल पर चढ कर छलांग लगाती दामिनी को समीप खडे संभ्रांत बुजुर्ग ने हाथ पकड़कर नीचे धकेल लिया ।
संध्या समय का धुंधलका छाने के कारण घूमने आने वाले लोगों की भीड भी थी। 
आते जाते राहगीर बुजुर्ग के चिल्लाने के कारण उनके पास आकर कारण पूछने लगे ।
 दामिनी धड़ाम की आवाज के साथ सड़क पर आ गिरी और दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूट फूट कर रोने लगी ।
उस बुजुर्ग ने तमाशबीन भीड़ को जाने को कहा और भीड़ को तितर-बितर किया ।
कुछ देर रोकर मन हल्का करने के बाद उन्होंने दामिनी के कन्धे पर अपना स्नेहिल हाथ रखा । और पिता के समान दामिनी से आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा ।
दामिनी ने उनके चेहरे पर चिंता के साथ ही पिता सा वात्सल्य भाव महसूस किया ।
उसने बताया कि उसके माता पिता की मृत्यु सड़क दुर्घटना के कारण बचपन में ही हो गयी थी ।
उस समय अबोध अनाथ इकलौती दामिनी को सगे चाचा ने सहारा दिया था ।
चाचा के अपनेपन के व्यवहार से किसी तरह दसवीं कक्षा तक पढ लिख गयी । किन्तु जैसे बड़ी होती गई चाची के हुकुम की गुलाम बनती गई ।
 घर का सारा काम करने के बाद भी चाची हर समय व्यंग बाण चुभोती है । 
और अब तो हद ही हो गयी, वह अपने नाकारा शराबी भाई के साथ जोर जबरदस्ती मेरा विवाह करना चाहती है।
" मैं मर जाऊँगी किंतु उस शराबी के साथ कभी विवाह नहीं करूंगी ।"

 दामिनी दोबारा फफक पड़ी ।
 वो बुजुर्ग कुछ देर तक मौन सोचते रहे। फिर दामिनी के साथ उसके घर जाकर चाचा से बात करके दामिनी के पढ़ने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली । 
और कहा कि --
"बेटी ! मेरा सौभाग्य है कि जो तू मुझे बेटी के रूप में मिल गयी ।
" दस बेटों से बेटी बेहतर ।
   बेटी है बेटों से बढकर ।।"

मेरे परिवार में मेरे दो बेटे पत्नि और मैं हम चार प्राणी है । 
एक बेटी की कमी खटकती थी आज वो भी ईश्वर ने मुराद पूरी कर मेरी झोली खुशियों से भर दी ।"
 
✍️ सीमा गर्ग मंजरी
 मेरी स्वरचित रचना
 मेरठ

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