🎂एक रहस्यमयी बंदर🎂
**********************
चंचल-चित होता अपना मन,
इत-उत मन डोले हो चंचल।
रहस्यमयी जैसे हो कोई बंदर ,
स्थिर- तन मन में ऊथल -पुथल।
दिल की बगिया में पल-पल,
इस डाली कभी उस डाली पर।
खेल दिखाता उछल-उछल,
चिंताओं के बंदर झुंड में अंदर।
लगता वहाँ इच्छाओं का मेला,
आत्म-चिंतन का पकड़े डोर।
बंदर झूले क्षण-क्षण झूला,
मन तो मनमानी अपनी करता।
बंदर सा वो खेले कोई खेल,
तन अस्थिर मन चंचल-बन्दर।
कभी तोड़ता इक्षित कोई फल,
मन-मस्त बन्दर मन के अंदर।
खुश हो रहस्यमयी खेल रचाता,
आक्रोशित हो डराता मन का बंदर।
खुशियों सें नाच, करतब दिखलाता,
मन तो एक सुन्दर खिलौना मिट्टी का।
चंचल सा बंदर खेले हरदम अंदर,
कभी तोड़ कर बिखराता टुकड़ों में।
रचाता फिर से नया कोई सुन्दर सा खेल,
मन चंचल सा, कब,कैसा? खेल रचाये अंदर।
तन-मन में कभी नही होता कोई मेल,
मन चंचल बन्दर सा दिखलायें नयें-नयें खेल।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्वरचित और मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित
कवयित्री-शशिलता पाण्डेय
0 टिप्पणियाँ