एम. मीमांसा जी द्वारा रचित मुक्तक

कायम  रख  तू  अपनी, आदत  शरमाने की
छिपकर रह फिर ना कर, परवाह जमाने की
था  ये  शोर  गली  में,  हैं  दो  चांँद  गगन  में
जरुरत क्या थी तुमको, हाँ छत पर जाने की

                      एम. "मीमांसा"

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