कवयित्री शशिलता पाण्डेय जी द्वारा रचना (विषय-फिर वही सिलसिला)

( लघुकथा)  
      फिर वही सिलसिला

नव-प्रभात के साथ ही ,अंशुमान अपनी स्वर्णीम छटा बिखेरते
हुयें ,रश्मि किरणों से "सुसज्जित रथ" में सवार होकर,सारे 
जग को आलोकित करते पूर्व दिशा में उदय-मान हो जाते है,
यूँ प्रतीत होता हैं,मानो इंसानों को ,एक अनुशासित जीवन जीने का संदेश प्रसारित कर रहे हों।
गरिमा भी रोज की तरह ,आँख खुलते ही रसोईघर की ओर
भागी ,चाय बनाते हुए सोचने लगी,क्या मेरी जिंदगी का मकसद,सिर्फ और सिर्फ यहीं है।  रसोई -घर  से शुरू होकर
रसोई में खत्म हो जायेंगी। क्या?रोज का वहीं सिलसिला
चलता रहेगा ,मेरी सारी शिक्षाएं इस रसोईघर और दूसरों,
की सेवा ,परिवार ,बच्चों की देख-भाल में दफन हो जाएँगी।
        गरिमा ने चार कपो में चाय डाला ,और मन ही मन ये 
निर्णय कर लिया कि, अपनी योग्यता और मैनेजमेंट की डिग्रियों को व्यर्थ नही जाने देगी ।
  तभी अमन ने पुकारा "गरिमा कहाँ हो जल्दी चाय दो और
नाश्ता तैयार करो ! मुझे ऑफिस जल्दी पहुँचना है!।गरिमा ने
अपने सास-ससुर को चाय देकर  अमन को चाय का प्याला
थमाया और खुद चाय पीने लगी ।
अपने पति अमन की तथा बच्चों का टिफिन नाश्ता तैयार 
करके गरिमा ने उन्हें क्रमशः ऑफिस और स्कूल भेजने के बाद सास -ससुर को नाश्ता कराया।
फिर खुद से नहा-धोकर नाश्ता  करके, अपनी सहेली साक्षी को फोन मिलाया,दूसरी ओर से साक्षी की आवाज आई"अरे
गरिमा !इतने दिनों बाद कैसे -कैसे फोन किया?????
"यार साक्षी मैंने  एक निर्णय लिया है जिसके बारे में तुम्हारी 
राय लेना मैने उचित समझा मैं सोच रहीं थी कि मैं अपनी नौकरी मैं फिर से ज्वाइन कर लूँ ! क्योंकि मेरी सारी योग्यतायें
चूल्हे-चौके में व्यर्थ हो जायेगी!मैंने सोच लिया है ,अपनी पहचान और वजूद को मैं नष्ट नहीँ होने दूँगी!
ये तो बहुत अच्छी बात है गरिमा !मैं तो समझ रहीं थी कि
अपनी सारी प्रतिभा को भूल ही चुकी हो ,पति बच्चों के मोह-ममता में!चलो देर आये दुरूस्त आये!तुम तो मेरी
क्लेसमेन्ट रही हो, कितनी अव्वल रहीं हो तुम पढ़ाई -लिखाई
में ! ठीक है गरिमा आज तो मेरे ऑफिस में छुट्टी है, घर आ सको तो आ जाओ !
गरिमा ने सभी को खिला-पिलाकर अपना बैग उठाया   और
अपनी सहेली गरिमा के घर चल पड़ी।
साक्षी के घर पहुँचकर गरिमा ने बेल बजाया, दरवाजा उसकी
सासु-माँ आशाजी ने खोला "अरे गरिमा !अंदर आ जाओ साक्षी अपने कमरे में हैं!साक्षी ने गरिमा को देखते ही कहा,गरिमा मैंने अपने बॉस से बात कर ली हैं !तुम्हें हमारी कम्पनी में एक जगह खाली है !तुम्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया
है। गरिमा ने कहा"साक्षी तुम्हें हमारा बहुत-बहुत धन्यबाद!
यार तुम भी गजब करती हो !पहले मुँह मीठा करो और धन्यबाद तो मैं तुम्हे दूँगी ,तुम्हारी नौकरी के साथ मुझें
भी ऑफिस में तुम्हारा साथ और कम्पनी मिलेगी!
गरिमा घर पहुँची, और जल्दी से अपना काम निपटाया
और आराम करने लगी ।
रात को खाने की मेज पर सभी घर के लोंगो पति अमन,सास,
सुमित्राजी, ससुर सुधाकरजी और सात साल के बेटे अर्नव और पाँच साल की आरूषि के साथ खाना खाते समय सबको
अपना निर्णय के बारे में बताया ।
अमन बोले !गरिमा  ये क्या कह रही हो??? तुम्हारे बिना मेरे 
पापा -मम्मी तथा बच्चों की देख-भाल कौन करेगा!कुछ तो
सोचो!
अब सुमित्राजी ने मुँह खोला, क्योंकि वे एक पढ़ी-लिखी अनुभवी महिला थी।बेटा!अगर बहु अपनी पहचान बनाना
चाहती है पढ़ी -लिखी है योग्य है उसके सपनों में अगर पँख
लगे है तो उसे मत काटो ,देखो बहु कितनी खुश और उत्साहित है, उसके सपनो को पंख लगने दो! हम पूरे दिन के
लिए नौकरानी रख लेते है! तुम्हारे पापा  और मैं दोनो बच्चों को स्कूल बस में छोड़ देंगे और ले आयेंगे तुम चिंता मत करो!
इस तरह हमारा भी वक़्त आसानी से कट  जाएगा!
गरिमा ने खुशियों से भाव-बिभोर होकर सासु-माँ के गले से झूल गई।
दूसरे दिन काफी उत्साह से गरिमा उठी और जल्दी से खाना-टिफिन तैयार कर ,ऑफिस में इंटरव्यू के लिए निकल
पड़ी।फिर तो वहीं रोज का सिलसिला था ,लेकिन जीने का
तरीका बदल गया था ,उसमे अपने खुशिओं के हिसाब से जीने का जज़्बा जो उसे अपनी मंजिल पाने का उत्साह
प्रदान कर रहा था।
और फिर गरिमा को नौकरी मिल गई,और सुबह और शाम
कब होती पता ही नही चलता,फिर वही सिलसिला निरंतर
जारी रहा।

         समाप्त
स्वरचित और मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित।
लेखिका:-शशिलता पाण्डेय

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