कर्मो का फल ढोते
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ये दुनियाँ जीवन का मेला,
आते है हम यहाँ अकेला।
यहाँ राजा,रंक कर्मो से बनते,
पाप-पुण्य का होता व्यापार।
जैसा हो जिसका बाजार,
कर्मो पर मिलता नगद उधार।
राजा रंक सभी फल ढोते,
जैसा कर्म बीज जीवन मे बोते।
पाप-पुण्य का जीवन बाजार,
चलता यहाँ कर्मो का व्यापार।
हत्या ,चोरी,झूठ,,या भ्र्ष्टाचार,
जीवन देता सबका प्रतिकार।
जैसा पेड़ लगाएं जो पाप-पुण्य का,
वैसा ही फल भी खाना पड़ता।
यहाँ जो बोए पेड़ बबूल का
वो आम कहाँ से खाता?
क्षणभंगुर इस दुनियाँ का बाजार,
राजा रंक सभी यहाँ आते ।
जैसा कर्म वैसा फल पाते,
यहाँ लगती रिश्तों की दुकान,
यहाँ नगद नही मिलता सबकुछ उधार।
नगद चुकाने को भेजे यहाँ भगवान,
जैसा कर्म किया जिसने यहाँ आकर।
अपने माता-पिता के खातिर,
नगद हिसाब बच्चों से चुकाना ही है।
रिश्तों का झमेला अद्भुत ये मेला,
यहाँ पाप-पुण्य का लगता बाजार।
परोपकार के सौदे से मिलता पुण्यफल,
पाप कर्म से फल मिलते बेकार।
ईश्वर ने दुनियाँ में भेजा अपना कर्ज चुकाने,
राजा-रंक सभी फल ढोते।
जैसा कर्म-बीज इस दुनियाँ में बोते,
नही चलता यहाँ रुपये-पैसे का बाजार।
यहीं रह जाते गाड़ी, बंगला और कार,
जैसा कर्म जो माता-पिता से करके जाता,।
बदले में अपने बच्चों से वैसा ही पाता,
दुनियाँ में जीवन-मरण का इतना ही नाता।
राजा रंक सभी फल ढोते,
जैसा कर्म जो करके यह से जाता।
हम-सब इसके कठपुतले जैसे वो चाहे,
सनको जमकर नाच नचाता।
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
कवयित्री:-शशिलता पाण्डेय
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