*कविता*
मैं भी उस पंथ का राही हूँ।
जहाँ से गए बड़े-बड़े वीर।।
वो भी प्रकृति में समा गए।
मिल जाएगा एकदिन ये शरीर।।
आँखों के होते बनकर अंधा।
कानों के होते बनकर बहरा।।
इतना भी तू अज्ञानी ना बन।
तू भी सामाजिक प्राणी ठहरा।।
लाखों मन्दिर भले घूम लिए।
आया नही मन में ध्यान।।
जो मन से सदा पवित्र रहे।
उसको ही मिलता भगवान।।
दिखावटी का जमाना भले।
काम आए अन्तः सादगी।
फिर काहे को करे दिखावा।
सच्चे मन से भज लो हरि।।
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