पत्थर का ढेला#प्रकाश कुमार मधुबनी'चंदन' जी द्वारा एक व्यंग रचना#

स्वरचित रचना

*पत्थर का ढेला*
मैं पत्थर का ढेला हूँ।मुझे आप कही भी लुढ़का दो।मेरे लिए सभी एक समान है कोई बड़ा नही  कोई छोटा नही। मैंने ऊँच नीच आजतक नही दिया मैंने कभी भी भेदभाव को बढ़ावा नही दिया।लोगों ने मुझे विभिन्न यातनाएं दी उन्होंने मुझे लुढ़का लुढ़का कर,मुझे लात मार मार कर मेरी बदन को छल्ली छल्ली कर दिया वो तो अच्छा है मुझे चोट नही लगती मेरा मतलब है ऐसा उनका सोचना है अन्यथा वो मुझे क्यों इतना क्यों लुढ़काते।चलो फिर सोचता हूँ कि अच्छा है वे मुझे कम से कम नजरअंदाज तो नही करते अन्यथा कुछ लोग मेरे वजूद को समझते ही नही है।कल की बात है वह बड़े नेता मुझे पैरों से रौंद रौंद कर मुझे लहूलुहान कर दिया उसने तो मानों कसम ही खा ली थी कि वह मेरे वजूद को सदा के लिए नष्ट कर देगा।और बात का बुरा नही लगता मुझे,केवल मात्र एकबात का दर्द होता है की कई बार वह मुझे उठाकर किसी असहाय मजदूर को दे मारते है अरे मैं पूछता हूँ कि वे ऐसा करते ही क्यों है जब भी उस युवा मजदूर को चोट लगता है मेरी अन्तः आत्मा कुन्ध उठती हैं अरे मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम मुझे अपनी लड़ाई में 
इतना घसीटना क्यों चाहते हो जिसका कोई अर्थ ही नही है अरे मैं पूछना चाहता हूँ कि इससे आपको मिलता ही क्या है क्या आपकि अन्तः आत्मा को बिल्कुल भी अन्दाजा नही होता कि किसी का दिल भी रोता है जब आप ऐसा करते हो।इससे आपके ह्र्दय में भी तो एक ज्वार भाटा उठना चाहिए।मुझे लोगो ने आज तक भ्रम में रखा कि मैं उनको बहुत प्यारा लगता हूँ तभी तो वे मुझे बार बार मुझे रौंदते रहते है शायद इसमें उनका कोई गलती भी नही है। मैं ही अपने अन्तःकरण के ताकत का उनको एहसास नही करा सका इसमें भी तो मेरी गलती है क्योंकि मैं यदि अपने मूल भाग से अलग नही हुआ होता तो शायद मैं भी किसी काम आ जाता, लोग मुझे भी तो इज्जतदार समझते यह तो मेरे भाग का ही  क़शुर है अब देखों उस अलग हुए पत्थर का भाग क्या चमकदार है वह मंदिर में मूर्ति बन गया है और आज उसकी कीमत उफ्फ रे बाबा आज लोग उसे पूजते है उसके सामने लोग सजदा करते है और उसी पत्थर का भाग होकर मुझे कहाँ डाल दिया गया है जहाँ लोग मेरे साथ कैसा हस्र करते है।यही तो है तो अपनी अपनी किस्मत।अब फिर सोचता हूँ इसमें भी तो मेरा ही दोष था मैं ही तो शिल्पकार के द्वार छेनी का मार सह नही पाया। जिसके कारण ही मेरी गति हुई।मुझे इसमें भी अब सन्देह होता है कि जिस छैनी नै मुझे किसी लायक सोचने लायक नही छोड़ा उस
छैनी ने ही उस बचें हुए पत्थर को भगवान बना दिया।वैसे क्या क़शुर हैं मेरा।फिर मेरे दिल में एक बात आई कि इसमें उस शिल्पकार कोई गलती नही था सब मेरी तरह गलती मत करना क्योंकि वह ऊपरवाला आप सभी को भी एक बेहद खूबसूरत आकार देना चाहता है।अपना धैर्य बनाएं रखना।किन्तु अभी कुछ दिन ही गुजरे है मुझे भी जगह मिल गया वह भी बड़ा महत्वपूर्ण मुझे एक गढ़े में भर दिया गया है जिससे मेरे कारण कई अब कई जिन्दगी बच जाती है जो पहले सड़क हादसे में कई जानें जाती थी।मैं खुश हूं अब।ॐ शांति। जय जय जय प्रभु

©प्रकाश कुमार मधुबनी'चंदन'
(कवि/लेखक/गीतकार)

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