गुरु क्या है?



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आलेख 
शीर्षक " गुरू क्या है?? " 

ऊँ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाअंजनशलाकया |
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरूवे नमः ||

अर्थात मैं महान अन्धकार रूपी अज्ञानता में उत्पन्न हुआ था पर मेरे आध्यात्मिक गुरू ने ज्ञान की अंजन रूपी शलाका से मेरे नेत्र खोल दिये | मैं उनकी सादर वन्दना करता हूँ |

 अज्ञान शब्द का अर्थ है मूर्खता अथवा अंधकार | यह भौतिक संसार अन्धकार पूर्ण है, अतएव यहॉ प्रकाश के लिए सूर्य अथवा चन्द्रमा की आवश्यकता पडती है, वैसे एक जगत और है जिसे आध्यात्मिक जगत कहते हैं, जो इस अंधकार से परे है |

श्रीकृष्ण भगवदगीता में उस जगत का वर्णन इस प्रकार करते हैं ~ मेरा वह धाम  न सूर्य, न चन्द्रमा और न ही अग्नि के द्वारा प्रकाशित होता है | जो मेरे उस धाम में पहुँच जाता है, वह पुनः इस भौतिक जगत में नहीं लौटता 

 गुरू का कार्य है शिष्य को अंधेरे से प्रकाश में लाना | गुरू का कार्य है कि इस भौतिक संसार में किसी भी मनुष्य को कष्ट न उठाना पडे | इस संसार में तीन प्रकार के कष्ट होते हैं और प्रत्येक जीव किसी न किसी कारण से दुख पा रहा है |

तब हम यह जिज्ञासा कर सकते हैं कि जीव संसार में कष्ट क्यों उठा रहे हैं, तो इसका उत्तर होगा कि ~ अज्ञानता के कारण जीव कष्ट पा रहे हैं |

 अतः गुरू का प्रथम कार्य है ~ शिष्य को इस अज्ञानता से छुटकारा दिलाना | गुरू ज्ञान की मशाल लेकर अंधकार में फंसे जीवों को सही मार्ग दिखाते हैं | 

 जो प्राणी आध्यात्मिक जीवन के विषय को समझने में गम्भीर है, उसे गुरू की आवश्यकता होती है | गुरू के शरणागत होना आवश्यक है, क्योकि बिना शरण में आये हम कुछ भी नहीं सीख सकते | हमें गुरू को उसी प्रकार स्वीकार करना चाहिए जिस प्रकार अर्जुन ने अपने गुरू स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को स्वीकार किया था |

गुरू भगवान के समान ही है, जब हम गुरू की वन्दना करते हैं, तब भगवान की वन्दना होती है | समस्त शास्त्रों में गुरू को भगवान के समान स्वीकार किया गया है |

क्योकि गुरू भगवान के अंतरंग दास हैं , उनका उसी प्रकार आदर किया जाता है, जिस प्रकार स्वयं भगवान का अतः गुरू को प्रभुपाद कहा जाता है | प्रभु का अर्थ है ~ स्वामी और पाद का अर्थ स्थति | 

 अतः प्रभुपाद का अर्थ है ~ जिन्होंने प्रभु की स्थिति ले ली है | जिस व्यक्ति ने गुरू की शरण ले ली है, वह विवेकपूर्वक बोलता है | वह कभी अर्थहीन बात नहीं करता   |

शास्त्रों का आदेश है कि ~ हमें श्रेष्ठतर व्यक्ति को ढूंढकर, स्वेच्छा से उनकी शरण लेनी चाहिए | गुरू बनाने के पूर्व हमें उनका सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए | हमें सहसा या धर्मान्धतावश गुरू नहीं बनाना चाहिए 

यह संसार एक स्वांग है | जो लोग इस संसार में श्रेष्ठतर स्थिति पाने का प्रयत्न करते हैं, वे अन्त में पराजित ही होते हैं, क्योकि यहॉ कोई श्रेष्ठतर स्थिति है ही नहीं | 

 क्या कोई ऐसा विज्ञान है जो हमें यह ज्ञान दे कि हम अमर बन सकें? 

हाँ, हम अमर बन सकते हैं, पर भौतिक दृष्टिकोण से नहीं | हमारे वैदिक ग्रन्थों में यह ज्ञान है, जिसके द्वारा हम अमरता को प्राप्त कर सकते हैं  |
 जो मनुष्य पूर्णरूप से अव्यभिचारिणी ( अन्नय) भक्ति के द्वारा आध्यात्मिक कार्य कलापों में लगता है, वह अविलम्ब भौतिक प्रकृति के गुणों को पार करके ब्रह्मभूत स्तर प्राप्त करता है 

इस प्रकार गुरू एक महान उत्तरदायित्व स्वीकार करते हैं, उन्हें अपने शिष्य का अवश्य ही मार्गदर्शन करना चाहिए | और उसे पूर्ण स्थति अर्थात अमरता प्राप्त करने का उपयुक्त अधिकारी बनने के योग्य बनाना चाहिए | 

गुरू को भी इतना निपुण अवश्य होना चाहिए कि ~ वे शिष्य को अपने घर, भगवान के धाम में वापस ले जा सकें |

✍️ सीमा गर्ग मंजरी 
 मेरी स्वरचित रचना
मेरठ

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