वस्तु-ग्राहक -तंत्र और लोक तंत्र#क्रांतिकारी कविता#जनता -जागरूकता

वस्तु-ग्राहक -तंत्र और लोक तंत्र 

कौन कहता है 
नेता ही ग़लत हैं 
कौन कहता है 
सब ग़लत काम 
नेता ही करता है 
कौन कहता है 
नेता ही घपला करते हैं 
कौन कहता है 
कि भ्रष्टाचार 
और बेईमानी 
नेता और मंत्री ही करते हैं 
कौन कहता है 
कि बिकाऊ तथाकथित पत्रकार 
सच लिख के दिखाते हैं 
सब के सब ढकोसला है 
तथाकथित बुद्धिजीवियों का 
फैलाया हुआ भ्रमजाल है 
क्योंकि असल में 
भारतीय लोकतंत्र में जनता 
पचास से लेकर पाँच सौ तक में 
अपने आप को बेचती है 
अपने मत और मन को बेचती है 
(तन बेचनेवालों से भी ज्यादा सस्ते में )
और खुद को वस्तु बना देती है 
और खरीददार को ग्राहक.. 
और वही 'वस्तु ' फिर खो देती है अधिकार, 
अपने 'डील' किये हुए मालिक से 
कोई 'अधिकार' मांगने का, 
'डील' यही थी कि 
'तुम मुझे वोट दो, उसके बदले में 
उसी के लिए उसी समय मैं तुम्हें नोट दूंगा '
फिर पाँच साल भूल जाती है 
वो 'वस्तु' अपने ग्राहक को, 
और ग्राहक भी भूल जाता है 
'वस्तु 'को 
क्योंकि कोई भी 'वस्तु'
कीमत चुकाकर 'यूज़' करने के बाद 
'यूज़लेस' हो जाती है.. 
यही 'दलाल -तंत्र' और  'ढोंगतंत्र' हमेशा चलता रहता है 
कभी गाँव की कभी राज्य की कभी केंद्र की 
खरीद -बिक्री तंत्र की  सरकार में.. 
बस अपवादों को छोड़कर, 
जिससे आज भी लोकतंत्र की आत्मा जीवित है.. 

डॉ दीपक क्रांति 

संदर्भ -#चुनाव #पंचायत_चुनाव #झारखंड

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