दिए-बाती जैसा अपना ये रिश्ता है
तेरा प्यार मेरी रूह तक रिसता है
कब समझेगा जमाना दिलों को
खामख्वां प्यार हर बार पिसता है
तोड़ दे काश,रिवायतों की बेड़ियां
जाने कहाँ रहता वो फरिश्ता है
मैं रह लूँगा तेरे दिल में सब छोड़ के
इससे बेहतर नहीं कोई सबिस्ता है
इश्क भी ढूंढ लेता है रास्ता अपना
चलता मगर आहिस्ता आहिस्ता है
डॉ विनोद कुमार शकुचन्द्र
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