एक दिन गोष्ठी में बैठा, हृदय मेरा हुआ प्रेम विभोर...

१-       शीर्षक -- ""नजर""
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एक दिन गोष्ठी में बैठा, हृदय मेरा हुआ प्रेम विभोर...
सुना कर्णों ने मधु गुंजार, नज़र मेरी गई पूरब ओर...
वहां जमघट था लोगों का, नजर पर ढूंढ रही मधुकंठ...
शब्द ध्वनि को यूं मधुर करें, आरती में ज्यों बाजे घंट...

सहरसा शब्द कहे कुछ नए, नजर मेरी गई जमघट बीच...
प्रेम भावों से भर मुझको, लिया उसकी नजरों ने खींच...
करे आकर्षित वह वपुकान्त, एक सुंदर काया उन्मुक्त...
नजर उस पर ही अडिग रही, हो नहीं पाया मैं फिर मुक्त...

भाल उनका ज्यों शीतल चांद, वर्ण उनका कर्पूर समान...
लालिमा अधरों पर बिखरी, केश मानो हों मेघ समान...
वस्त्र पहने थे जो मानो, आर्य संस्कृति का करे प्रचार...
श्वेत और लाल वस्त्र संगत, आह: मन करने लगा विचार...

बढ़ाये सुंदरता परिधान, तूल ज्यों रहता मानस साथ...
किया उसने कुछ अन्य विचार, लिया ध्वनि विस्तारक को हांथ...
वाद्य से निकले ज्यों मधु-ताल, गा रहीं मानो वैसे गीत...
हृदय मेरा स्तंभ समान, सुन रहा था वह सुंदर गीत...

देश हित में थे उनके शब्द, कर रही थी उनको लय-बद्ध...
दे रही कोकिल सा सानंद, हो गये सब उनसे अनुबद्ध...
हो गया आकर्षित मैं भी, हृदय में बसी छवि उनकी...
गीत-ध्वनि अति मनमोहक थी, प्रशंसा करें कवि जिनकी...

नजर के सम्मुख वो मेरे, खड़ी मानो हों परी कोई...
देखता रहा एक-टक मैं, नजर मेरी उनमें खोई...
नजर उसने की मेरी ओर, नजर दो से फिर एक हुई...
किया फिर मंदहास उसने, नजर ही नजर से बात हुई...

किया नजरों से वशीकरण, दिख नहीं रहा मुझे कुछ और...
उन्हीं की आभा नजरों में, करें नजरें बस उन पर गौर...
तराशी नजरों से मुझको, पिलाया उसने मधु प्याला...
हुआ मन मादिकता से लिफ्ट, पिया नजरों से जो हाला...

और फिर एक दूसरे की, खो गए नजरों में ऐसे...
लगे धरती से मिलने नभ, क्षितिज पर आया हो जैसे...

और फिर जगी प्रेम लालसा, प्रति उनके मन में मेरे...
किंतु मैं कह ना सका उनसे, हृदय में जो भी था मेरे...
बीतते गए सत्र पर सत्र, बचा न कोई अन्य विकल्प...
है कहना उनसे मन की बात, लिया मन ने तब दृढ़ संकल्प...

सो गया लेकर मैं उम्मीद, और रवि भोर पहर लाया...
सुहाना प्रात:काल आया, और मौसम भी मन भाया...
सहरसा नजर पड़ी उन पर, दिखाया मैंने उनको हाथ...
गया फिर मैं उनके अति पास, और की वार्ता उनके साथ...

हृदय में उनके प्रति जो था, किया उनसे ही सब कुछ व्यक्त...
सुना उसने सब कुछ मन से, किया जो भी मैंने अभिव्यक्त...
नजर उसने की भूमि तरफ, किया मुंख नीचा कमल सामान...
नजर में शर्म आवरण था, किंतु अधरों पर थी मुस्कान...

और फिर "हां" कह कर उसने, रख लिया भावनाओं का मान...
हृदय में रहती हैं मेरे, मैं करता हूं उनका सम्मान...
पड़े चाहे जितनी मुश्किल, न छोड़ूं कभी मैं उनका हाथ...
हम रहते हैं सहयोगी बन, लगे ज्यों श्री-विष्णु के साथ...

✍🏻 "पुष्कर शुक्ला"
      बिसवां-सीतापुर

Badlavmanch

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