"आज की बेटी "
है वह आज की बेटी !
जाने कितनों के घर की ज्योति,
जाने कितनों के आंखों की मोती,
बन कर पल रही वह बेटी ।।
किसी की बहन , किसी की मां, किसी की पत्नि
के फ़र्ज निभाती जी रही वह आज की बेटी ।।
उठते गिरते लहरों से,
आते जाते तूफानों से,
न डरी है न डरेगी आज की बेटी।।
धूप धूल छांव सी, नदी में नाव सी,
गोते खाते आगे बढ़ रही है वह बेटी।।
जो सदैव से भयंकर कष्टों का बीड़ा सिर पर उठाए
खड़ी रही अविचल पर्वत की तरह;
अपनी वही भूमिका निभा रही
वह आज की बेटी।।
कलियों सी कोमल स्पर्श लिए,
फूलों सी सुंदर गन्ध लिए,
पवन के प्राचीर में बहती अलग - ढलग सी रंग लिए।
जाएगी स्कूल और पढ़ेगी और बढेगी
बस, ट्रेन , दूर दराज घूमेगी दुनियां करेगी काम
यह आज की बेटी ।।
जिसे समाज ने स्त्री हो तुम ; अपनी सीमा में रहो!
कह कर था गुमनाम किया ।
भूल गया क्या यह संसार कि
स्त्री ने भी ऊँचा देश का नाम किया ।
अथक परिश्रम करके उसने
पुरुषसत्तात्मक समाज का नाश किया,
और गौरवान्वित देश का नाम किया
हां ! हां ! है यह आज की बेटी ।।
पूर्णिमा रॉय
पूर्व बर्द्धमान,पश्चिम बंगाल
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