काश

शीर्षक - काश!

काश! कानून की तासीर में ज़हर होता
तो फिर इक *कली* दरिंदगी का शिकार न हुई होती
काश! सामाजिक पुतलों में चेतना होती
तो फिर इक चीख़ अस्पताल में गुंजायमान न हुई होती
काश! मेरी बहनों तुम सब काली चण्डी होती
तो फिर किसी हैवान की अवकात न हुई होती
काश! फ़ब्तियां कसने पर लोगों का ज़मीर जगता
तो फिर इक बच्ची की चीख़ सुनाई न हुई होती

कब तक काश! और आख़िर कब तक कैंडल मार्च।
अब तो बंद कर दो दिखावे की टॉर्च।
©® जितेन्द्र विजयश्री पाण्डेय "जीत"

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना

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