पराधीन सपनेहु सुख नाही

बदलाव मंच साप्ताहिक "प्रतियोगिता विषय"
 स्वतंत्रता दिवस "पर काव्य मिश्रित भाषण का आलेख
शीर्षक "स्वतंत्रता दिवस"
"पराधीन सपनेहु सुख नाही "कहावत चरितार्थ होती है उन बदनसीब नागरिकों के लिए, जिनके आत्म सम्मान और मान मर्यादा का मर्दन विदेशी आक्रांताओं द्वारा शासक की भूमिका का निर्वहन करते हुए किया जाता है ।दुर्भाग्य से सदियों तक भारतवासियों ने गुलामी के क्रूर दंश को झेलते हुए अपार कष्ट को महसूस किया हैऔर प्रतिक्रया स्वरूप दमन के विरूद्ध स्वतंत्रता आंदोलन का श्रीगणेश अठारह सौ सत्तावन में देश वासियों द्वारा किया गया । उस काल का वर्णन हम निम्न प्रकार कर सकते हैं ।
"गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहचानी थी ।
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी ।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी ।
बुन्देले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लडी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी ।
      इस तरह आजादी के असंख्य दीवानो ने अपने जान की बाजी लगाकर पंद्रह अगस्त सन सैतालीस को भारत को आजाद कराया।चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, मंगल पांडे, तात्या टोपे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आजादी की लडाई में अपना अमूल्य योगदान दिया ।इस लडाई में असंख्य देशवासियों ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देकर वीरगति को प्राप्त किया ।उन समस्या महान बीर सपूतों को देशवासियों की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि और शत् शत् नमन ।
"शहीदों की चिताओ पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा ।"
अंत में राष्ट्र पिता बापू के सत्य, अहिंसा का संदेश, असहयोग और सत्याग्रह आन्दोलन के परिणाम स्वरूप भारत माँ को आजादी प्राप्त हुई और हम सभी लोगों ने यह सोचा कि       
"लोकतंत्र की बेदी पर, समता का फूल चढेगा ।जाति धर्म के बंधन से, हम सबको मुक्त करेगा ।
चूल्हा रोज जलाएगी, गृह लक्ष्मी घर में हसकर ।
प्यार मिलेगा बच्चों को, जब वो आएँगे पढकर ।
अफहरशाही के बल पर, ना कोई रोब जमाएगा ।
अधिकारों की धौस दिखा ना, कोई जेब भर पाएगा ।
रिश्वतखोरी, बेईमानी का, होगा चक्का जाम ।अपनी मेहनत के बल पर,सब तन मन धन से करेगे काम ।
     परंतु उपरोक्त समस्त समस्याओ के नए समाधान में हम फिसड्डी सिद्ध हुए तथा गरीबी और अमीरी के बीच बढती खाईं ने यह कहने को मजबूर कर दिया कि 
"श्वानो को मिलता दूध, वस्त्र ,भूखे बच्चे अकुलाते हैं ।
माँ की हड्डी में ठिठुर, चिपक, जाडे की रात बिताते हैं ।"
गरीबी का मुख्य कारण आज भी अग्यान, अशिक्षा, शोषण, कदाचार और भ्रष्टाचार प्रमुख है ।बच्चों में कुपोषण और लैंगिक विषमता विकराल रूप धारण कर समाजिक ताने-बाने को तितरबितर कर रही है।आतंकवाद और अलगाव वाद के साथ साथ धार्मिक कट्टरता का त्रिकोण हमें वैमनस्य के ऐसे अंधे कूप में फेंक रहा है, जिसमें से सुरक्षित निकल पाना लगभग असंभव प्रतीत होता है ।ऐसे भयावह परिदृश्य में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियाँ संकट मोचक का कार्य कर सकती हैं, यदि आम जनमानस उसकी मूल भावना को समझकर तदनुसार  कार्य संस्कृति विकसित करे।
"सॅभलो कि सुयोग न जाय चला ।
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला ।
समझो जग को न निरा सपना ।
पथ आप प्रशस्त करो अपना ।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को ।
नर हो न निराश करो मन को ।"
   यदि हम अपने जीवन में मानवता का समावेश कर आगे बढने का प्रयास करेंगे तो पुनः हमारा देश विश्व में शक्ति शाली राष्ट्र बनकर आलोकित होगा और राम राज्य का स्वप्न साकार होगा । 

प्रस्तुतकर्ता   डा अजीत कुमार सिंह झूसी प्रयागराज मोबाइल नं 8765430655

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