अब तोड़ दो #रूपक जी के द्वारा#

अब तोड़ दो........

तोड़ दो तुम उस हर बंधन को
जो तुम्हे अपनी ही तरह से जिंदगी जीने नहीं देती है।
तोड़ दो तुम उस हार जंजीर को 
जो तुम्हे तुम्हारी आजादी से नहीं गुलामी से बांधती है।
तुम पर जो हर रोज लाख जुर्म करता हो
और तुम उसे ही अपना पति परमेश्वर मान बैठी हो।
तोड़ दो तुम उस हार बंधन को
जो तुम्हे अपनी ही तरह से जिंदगी जीने नहीं देती है।
कोई तुम्हे जिल्लत भरी जिंदगी दे रहा हो
और तुम इसे अपने किस्मत का लिखा मान बैठी हो।
जो तुम्हारे हर दुख में साथ ना दे रहा हो
और तुम उसे जिंदगी भर का हमसफ़र मान बैठी हो।
तोड़ दो तुम उस हार बंधन को
जो तुम्हे अपनी ही तरह से जिंदगी जीने नहीं देती है।
तुम्हे हर जुल्म सहने को मजबुर कर रहा हो
और तुम उसे अपना परिवार और समाज मान बैठी हो।
तुम्हे जुल्म की जंजीरों में बांध कर रखता हो
और तुम इसको अपने भाग्य का लिखा  मान रही हो।
तुम्हे जुल्म से मरने पर आज मजबुर कर रहा हो
और तुम इसे अभी तक अपना संस्कार मान रही हो।
अब छोड़ो तुम अपने इस झूठ के भाग्य पर रोना 
कर दिखाओ इस दुनिया को जो चाहती हो करना।
तोड़ दो तुम उस हार बंधन को
जो तुम्हे अपनी ही तरह से जिंदगी जीने नहीं देती है।
©रूपक

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