कवयित्री गीता पाण्डेय जी द्वारा 'ओस की बूंदे' विषय पर रचना

01/09/2020
विषय-ओस की बूंदे 
विधा-कविता 
प्रकृति-स्वरचित 

ओस की नन्हीं बूंदें, लगतीं हैं मोती।
सदा चमकती,  यदि धूप नहीं होती।

सूर्योदय से पहले होती अद्भुत छटा।
प्रकृति प्रेमियों का मन सदा ही डटा।

ये बूंदें सदा देती रहती हैं एक संदेश।
शीतलता से सुखानूभुति का अंदेश। 

धूप से ही, इसका होता है अवसान।
सज्जन से दुर्जन जैसे होते परेशान। 

ओस  की बूंदों पर, चांदनी  प्रकाश।
उसके सौन्दर्यता में, करता विकास।

वधु जैसे ओढ़ती है मोतियों की पट।
धरा वैसे ही सोहे , ध्यान जाता  बॅट।

शीतलता, उष्णता  दो  ऐसे  है रुप।
जीवन में ये आते रहते रंक या भूप।

इस उतार चढ़ाव में नौका होती पार।
यही तो है हरि की लीला अपरम्पार।

गीता पाण्डेय, रायबरेली, उत्तर प्रदेश

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