कवयित्री नेहा जैन जी द्वारा 'धूप-छाँव सा मिलना हमारा' विषय पर रचना

धूप-  छाँव सा
 मिलना हमारा
साथ न कभी रह पाए
पूरक होकर भी एक दूसरे के
विपरीत ही हम स्थान पाए
बनकर जीवन के दो हिस्से
अपने अपने फ़र्ज निभाए
कैसे कह दू तुमको पराया
तुमसे ही मेरा वजूद अस्तित्व में आया
तुम छाँव हो मेरे जीवन की कैसे ये जग को समझाऊ
भेद समझे दुनियाँ हममे
ये कैसी नियति देखो
बंधे हुए एक दूजे से फिर भी साथ न रह पाए
संध्या बनकर तुम में लीन होती हूँ
खुद को तुझमें तन्मयता से में डुबोती हूँ
मिलन हमारा नामुमकिन से लगे सभी को
पर तुझसे से चुपके चुपके मैं मिलती हूँ
कभी तो इंतजार में ,रुक जाओ तुम
मुझको ह्रदय से लगाओ तुम
बने एक दूसरे के लिये है हम
की हर प्रश्न का उत्तर बन जाओ तुम
तुमसे पूरी होती हूँ, तुमसे दूर ही जाकर
बिडम्बना देखो कैसी ये मैं धूप तुम छाँव
मिलके भी मिलना पाए
पर साथ साथ ही हम पुकारे जाए
आओ अब एक दूसरे में हम
अपने अपने किरदार निभाए।।

स्वरचित
नेहाजैन

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