सादर समीक्षार्थ
विषय - कब कोई कैसे विधा - कविता
कब कोई कैसे, किसी के
दिल को भाने , लगता है
कहाँ कैसे कोई, किसी की
कल्पनाओं में, आ बसता है..।।
कैसे कोई कब, किसी को
जीवन अपना, मान लेता है
और कब कोई किस, घड़ी में
सब कुछ अपना, हार जाता है..।।
किससे कह दूँ, कैसे कह दूँ
जीवन के यह, भेद अजूबे
कहाँ किसी के, वश में होते
विधाता के ये, खेल निराले..।।
कहने को तो, कुछ भी कह दो
कब कोई किसी को,रोक पाया
कौन कब किस, डगर मिलेगा
क्या कहूँ कुछ, समझ न पाया..।।
डॉ. राजेश कुमार जैन
श्रीनगर गढ़वाल
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