मंच को नमन
मांँ
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जब लगती है चोट
उठते -बैठते, आते- जाते
जागते- सोते ,हंसते -रोते
निकलता है एक ही शब्द
मुंह खुलते ही
मां।
बसंत की बहार में
सावन की फुहार में
मस्त होकर नाचते
प्रेम के बहाव में
राग रंग में झूमकर
मदहोश होकर घूमते
पुष्प की पंखुड़ी
एक-एक तोड़ते
शूल जब चुभा कहीं
चीखते
हाय मांँ।
नदी के बहाव-सा
आग के ताप सा
सुगंध की चाहे में
आषाढ़ में ,जेठ में
पूस में भी भागते
प्रात में सांझ में
दोपहर में दौड़ते
प्यास जब न बुझी
पुकारते
धाय मांँ।
जमीन अपनी छोड़कर
संबंध सारे तोड़कर
आसमान भेदने
निकल पड़ा घर छोड़कर
रेत सा बिखर गया
फिर न संभल सका
अंत में यही कहा
मान लेता
बात मांँ।
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मैं घोषणा करता हूंँ कि यह रचना मौलिक स्वरचित है।
भास्कर सिंह माणिक, कोंच
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