. कविता
*मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय*
मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय जहां,
मात-पिता की सेवा होती है।
घर-घर जाकर सब देखों प्यारे,
उस जगह सच्ची बरकत होती है।।
धरा सिणगार मेरे मन भाये,
पौधारोपण से हो हरियाली।
मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय जहां,
मन से सभी मिल करें रखवाली।।
देश सम्पती अपनापन माने,
बात-बात पर गुस्सा नहीं करना।
मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय जहां,
भाईचारा पथ पर हो चलना।।
जैव-विविधता शान हमारी,
इससे नाता मत तोडो भाई।
मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय जहां,
धौखे बाजो की न हो परछाई।।
छोड़े-बड़े का फर्क नहीं पड़ता,
मानवता का हो वो रखवाला।
मैं मिलूंगा तुम्हें वहीं प्रिय जहां,
वो हो *जल अमृत* बचाने वाला।।
©®
रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
0 टिप्पणियाँ