शीर्षक - होली (श्रंगार)
फागुन दहक रहा मन महक रहा,आओ होली खूब मनायें
आओ प्यार की नूतन रीत चलायें, गीत मिलन के अभिनव गायें
दृग उलझें टूटें कुसुम, प्रीति की सरगम मधुर
बजायें
नाचें गाएं गुलाल अबीर उडायें, होली के रंगों से सराबोर हो जायें
खिल रहे पलाश कपोलों पर, प्रियतम की याद सतायें
अंग अंग यौवन बिखरायें,मधु वर्षाती सौगातें लायें
साजन से मिलने तैयार हुई,सजनी कर सोलह श्रृंगार
सजनी के नयनों में सिमट गया,पूरा रंगों का बाजार
अॅ॑खियां भर भर मारे पिचकारी, होवे तन मन हर्ष अपार
उसका रंग रूप अनमोल है,मलय सांसों की चले फुहार
आलिंगन,चुंबन,पुलकन की , गात में थिरकन उठे हजार
बाॅ॑हों में अटूट अभिनव बॅ॑धने को, मन मयूर स्वयं करे अभिसार
यौवन की जय हो जीवन में लय हो,चखे पीयूष बार बार
जीवन मधुमय हो रहा मन में उड़े गुलाल,बहार आये बार बार
जीवन मधुशाला हो गया,साकी पैमाना एक हो, मधु पिलायें बार बार
अंतर्मन से तिमिर हटा,हृदय भरा प्रकाश से आनंद आ रहा बार बार
फागुन दहक रहा है मन महक रहा है,आओ होली खूब मनायें.......
आओ प्यार की नूतन रीत चलायें, गीत मिलन के अभिनव गायें.......
दृग उलझें टूटें कुसुम, प्रीति की सरगम मधुर बजायें.......
नाचें गाएं गुलाल अबीर उडायें, होली के रंगों से सराबोर हो जायें......
चंद्रप्रकाश गुप्त "चंद्र"
(ओज कवि )
अहमदाबाद, गुजरात
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