विचलित धरा


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           विचलित धरा

पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।
बेईमानी का खंजर हर शख्स लिए,हाथ में घूमता है होश रहा न जरा।
अंहकार की बदबू आ रही है,कोई ये कहता नहीं कि गलती हुई।
ये पाप की आग हर तरफ फेल गई है सुलगती हुई।
मरना सबको है एक दिन,मगर बुरे कर्म करने वाला हमेशा तड़पके मरा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

ये धरा है उन वीरों की, सींच गए जो अपने लहू से।
हम क्या जाने कुर्बानी देना,हम तो जाने बस लेना दहेज बहू से।
इज्ज़त करना न जाने हम,इज्ज़त का मोती पड़ा है बिखरा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

कहीं दहेज कहीं भ्रूण हत्या,कहीं दुष्कर्मी का खोफ।
इन पापों का धरती पर बढ़ गया है बोझ।
चुका न पाएंगे कभी, कर्जदार इस धरती का हमारा है  कतरा-कतरा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

झूठ और फरेब की फसल, उगने लगी है।
ये दुनियां गोबर में से पैसा, चुगने लगी है।
सामने वाले की कदर न जाने, नाक पे रहता है नखरा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

खिली-खिली धरा ये हमारी, हर चीज हमें देती है।
हीरे-मोती न मांगे,बदले में ये मेहनत का पसीना लेती है।
जब हम चीरते हैं धरती का आंचल,इसका सिना हरियाली से निकलता रे हरा-भरा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

यूं सितम न करो धरती पे,बनकर तेजाब।
मां हमारी ये धरती है,तुम करो हिजाब।
जन्नत उसके चूमती है कदम, जिसने भी मां का आदर करा।
पाप इतने बढ़ गए दुनियां में, विचलित होने लगी धरा।

Birendar Singh Athwal
M 9416078591

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