गुरु

कोरे कागज सा जीवन था
मस्तिष्क में कोई ज्ञान न था
ऐसे में एक गुरु मिले
धीर गम्भीर शांत निर्मल
थामा जिनका मैंने आँचल
टूट चुकी थी
हार चुकी थी
बचा नही कुछ मन मे था
तब आकर जीवन मे मेरेआशाओं का दीप जलाया
हार में भी जीत छिपी है
आंसू में भी कोई हँसी है
पाठ यह मैंने उनसे सीखा
और सीखा मैंने उनसे
पल पल बढ़ते रहना
हौसलों को छोड़ न पगले
आत्मविश्वास तेरा अडिग रहे
चलता जा बस चलता जा रुकने का तू नाम न ले
आज हूँ मैं जो कुछ भी
देन अपने गुरू की हूं
मिट्टी थी मैं बन गई सोना
कोटि कोटि प्रणाम गुरु को

जिनसे मिली ज्ञान की अदभुत गंगा
सामने जिसके फीकी चाँदी
निर्मूल है सोना
जीवन अपना उन्हें समर्पित करती हूं
जो जीवन का आधार बने
कंगाल थीं मैं मालामाल बनी
आशीष अपने गुरु का पाकर
मै सबसे खुशहाल बनी
नेहा जैन 
ललितपुर 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ