सियासत का शिकार

वह लेटा था, सफ़ेद लिवाज लपेटा था
जमात पड़ी थी, भीड़ बढ़ रही थीं
देखने उसे हर पैर दौड़ रही थी।
वह लेटा था, शायद हंस रहा था
अपनी हालात पर, जनता के जज़्बात पर
कल वह दरिंदो का शिकार हो रहा था,
हर वो शख़्स जानता था
जो आज उसके 'मातम' में पहुंचा था!
वह शांत, निस्तबद्ध, निष्प्राण, पड़ा था,
जिसके लिए 'चिल्लाहट' पूरे माहौल में मचा था।
कल वह लड़ा होगा, चिखा होगा, चिल्लाया होगा,
होकर अपने 'पुरूषार्थ' से विफल
प्राणों की 'भीख' भी मांगा होगा!
उस अंतिम क्षण उसे
 उस मां का आंचल याद आया होगा
जिसने उसे संजोया था!
उस पिता का ख्याल आया होगा
जिसका वह 'सहारा' था!
वो 'नवविवाहिता' याद आयी होगी
जिसने सब छोड़ कर उसे अपनी दुनियां स्वीकारा था!
वो घर, वो रास्ते याद आए होंगे 
जो उसकी राह तक रहे थे!
वह दरिंदो के बीच घिरा था,
रक्त में सना, बेबस, लाचार, बेहोश पड़ा था!
उसके बेहोशी में भी 
उन दरिंदों ने बेरहमी से उस पर वार किया,
वह निर्दोष युवा "सियासी हथकंडों" का शिकार हुआ!
घरों में बैठे भीरू लोगो के भांति
आकाश, धरती, हवा...
इंतज़ार कर रहे थे ये सभी
उसके 'लाश' बन जाने का,
एक बार फिर अच्छाई के 'नाश' हो जाने का!
उसके नेत्र खुले रहे,
वह उम्र भर की निद्रा में विलीन हुआ!
अब वह जड़ बना,
खुली आंखों से परिस्थिति की जड़ता को देखता रहा!
वह पंचतत्वों में समाहित हुआ ।
उसके चिता की लपटे उपहास कर रही है,
उन तमाम  मानवों  के प्रति
जिनमे 'मानवता'  मृतक हो चली है,
केवल 'भीरूता' वास कर रही है।

-- अंजनी चौरसिया

पश्चिम बंगाल,  पूर्व बर्द्धमान

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