अपनों की अहमियत

                                                        

             

   डोगरी कहानी "अपनों की अहमियत"

                                                                                  

                             अनुवादक/ मूल कहानीकार  सरोज बाला

शादी समारोह समाप्त हो चुका था , लेकिन गहमागह्मी अभी तक समाप्त नहीं हुई थी| मेह्मानों ने भी ड़ेरा जमा रखा था|

ऐसे में नवविवाहिता आरती को बहुत असुविधा हो रही थी| सुबह उठकर तैयार होना , रात देर से सोना और दिन भर परिवार वालों के सामने घूंघट ड़ाल कर बैठे रहना |रोज सुबह शाम घूमने फिरने वाली आरती के लिए सज़ा से कम नहीं था| रात सोने के  समय या दिन भर में किसी समय उसकी झलक मिलती तो वह समय एक ताज़े हवा के झोंके के समान आरती को घुटन से राहत दिलवाने होता  था|

 आरती चाहती थी कि मायके की तरह दिन में खाना खाकर थोड़ी देर कमर सीधी कर ले और शाम को थोड़ा टहल आए |पर रिश्तों से भरे माहौल में यह संभव नहीं था|

शाम को वह उदास बैठी थी| तो समझदार जेठानी ने प्रदीप से कहा ," देवर जी .... कुछ दुल्हन का ख्याल रखा करो ?'

" क्या हुआ ?" प्रदीप ने चौंकते हुए कहा|

" अरे ..... आरती को थोड़ा घुमा फिरा लाओ| घर में बैठी बैठी बोर हो गई होगी | "

" लेकिन भाभी रिश्तेदार क्या सोचगें ? प्रदीप ने अपने दिल की बात को छुपाते हुए बोला |

" सोचने दो जो  भी सोचते है| तुम लोग जाओ| बाकी मैं संभाल लूगीं| " भाभी नें कहा |

 थोड़ी देर बाद प्रदीप आरती को बाइक पर बैठा कर बाज़ार ले गया | बाज़ार पहुंच कर बाइक पार्क में खड़ी करके बाज़ार में पैदल इधर उधर घुमने लगें| पहली बार पति के साथ घूमती आरती बहुत ही रोमाचिंत थी| उसके छोटे से शहर में तो शाम सात बजे से ही अंधेरा छा जाता था और यंहा लग रहा था कि दिन अभी ही शुरू हुआ हो | चारो और रोशनी के रंग बिरंगे फुहारें, एक से एक खूबसूरत पोशाकों में सजधजे युवक युवतियां  और चारो ओर रौनक सी छाई हुई थी| इन्हीं सभी में खोई खोई हुई आरती प्रदीप के पीछे पीछे चल रही थी| तभी प्रदीप की आवाज़ से आरती  चौंक गई| उसे लगा  की प्रदीप उसका ध्यान अपनी ओर खींच रहा है|पर प्रदीप की निगाहें तो खूबसूरत लड़कियों के झुंड़ पर थी| आरती प्रदीप की शरारत पर मुस्करा उठी|कुछ देर के बाद प्रदीप ने कहा," देखो कितनी सुंदर जोड़ी है? बड़ा किस्मत वाला है वो जिसे इतनी सुंदर सी पत्नी मिली है| "

आरती ने देखा बाकई वह महिला बहुत सुंदर थी| उसने फिर सहज सरल रूप से मुस्करा कराकर हाँ में हाँ मिलाई | दोनों कुछ देर घूम कर चाट पकौड़े खाकर वापस आ गए |

अगले दिन फिर घूमने निकले| अगले दिन फिर वही स्थिती रही | प्रदीप का ध्यान फिर इधर उध्रर जाता रहा | आरती को बुरा लगा कि साथ में इतनी नवविवाहिता पत्नी के होते हुए भी प्रदीप का ध्यान कहीं ओर है ?पर उसका बचपना समझ उसकी चंचलता पर ध्यान नहीं दिया |

कुछ दिन बाद प्रदीप आरती को लेकर अपने नौकरी वाले शहर में चला आया | आरती समझ चुकी थी कि प्रदीप सौंद्रय का रसिया है |और इसलिए सांवली सलोनी आरती पाकर ज्यादा खुश नहीं है |लेकिन आरती को विश्वास था कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा |

उसने बड़े यत्न से अपनी गृहस्थी सजाने शुरु की  थी| छोटे से घर में सारा सामान सलीके से लगाया था| परदे, चादर, कुशन जो उसने खुद काढ़े सिले थे लगाकर घर की काया ही पलट गई थी| आँगन में फूलदार पौधे लगाकर सजा दिए थे | कुछ दिन  तो प्रदीप भी हैरान और मुग्ध हुए रहा| उसे विश्वास नहीं हो रहा था| कि स्त्री के स्पर्श से घर इतना सुंदर बन जाता है | आरती के साथ साथ प्रदीप भी खुश था|

जल्द ही प्रदीप का मोह भंग हो गया|वह अपने रंग में आ गया | जब भी आरती उसके साथ घूमने को तैयार होती तो प्रदीप उसे टोक देता | ," अरे इतने गहरे रंग की साड़ी ? इसमें तो पता नहीं चलेगा कि तुम्हारा चेहरा , हाथ पैर और तुम्हारी साड़ी कहा है?"

" लेकिन दक्षिण भारतिय महिलाएं भी तो सांवली रंग की होकर इतने गहरे रंग पहनती हैं| " आरती ने अपना तर्क दिया |

" अरे उनकी बात तो कुछ और हैं| इन पर ये भी फबता हैं| " प्रदीप ने बड़ी लापरवाही से कहा |

 आरती अगर हल्के रंग की साड़ी पहनती तो प्रदीप उसी टोक देता ," अरे ...इसमें तुम्हारा रंग और भी गहरा लगेगा |"

आरती कट कर रह जाती है," ठीक है...तुम ही बताओ क्या पहनू ?"

प्रदीप उपेक्षा से बोला ," कुछ भी पहन लो .... लगता है भगवान ने तुम्हें ओवर टाइम में बनाया है |" अपमानित सी आरती की आँखों में आँसू आ गए  और सारा उत्साह ठण्ड़ा पड़ गया |  यह सच था कि उसका रंग सांवला था लेकिन नैन नक्श सुंदर थे| लंबे बालों की चोटी लहराती थी| उसकी खूबसूरत सी आँखों को देखकर सहेलियाँ अक्सर चुस्कियाँ लेकर कहती थी," आरती... पलकें झुकाकर रखना वरना कोई न कोई इन झील सी आँखों  में ड़ुबकी लगा लगेगा|"

आरती अपनी कमी  को बखूबी समझती थी| और इस कमी को पूरा करने की खातिर उसने अपना पूरा ध्यान व्यक्तित्व को संवारने में लगा दिया |स्कूल  कॉलेज टॉप पर रही | उसकी  सुरीली आवाज़ के बिना कोई भी कार्यक्रम  पूरा नहीं होता था| खेलकूद हो या कला जिस विधा में लग जाती उसमे आगे ही रहती थी| उसे विश्वास  था कि उसके गुणों के कारण  उसका रंग महत्वहीन हो जाएगा |

लेकिन उसकी आशाओं  पर पहला आघात तब हुआ जब उसके रिश्ते की बात चलनी शुरू हुई | अच्छा घर व गुणों के होते हुए भी बात सांवले रंग पर अटक जाती थी| प्रदीप से रिश्ता तय हुआ तो उसे लगा कि शायद उसके गुणों का कद्रदान मिल गया है लेकिन प्रदीप ने उसकी सारी इच्छाओं पे पानी फेर दिया था| घर से बाहर निकलते ही उसके धेर्य की परीक्षा शुरू हो जाती थी | प्रदीप आरती पर खूबसूरत स्त्रियों या लड़कियों को देखकर कोई न कोई टिप्पणी ज़रूर करता|

कई बार आरती बात को मज़ाक में उड़ाते हुए कहती ," अरे.... खुशकिस्मत हो  जो मेरी जैसी वीवी मिली वरना सब तुम्हारी तरह मुझे भी मुड़ के देखते या सीटी बजाते|"
" रहने दो सब बेकार की बातें ... आजकल ब्यूटी का ज़माना है |"

आरती का मन चित्कार हो उठता | उसके बस  में जो कुछ भी था |वह कर रही थी| लेकिन जिसका सुधार नहीं हो पाए | उसका क्या इलाज़ था | फिर भी वह हिम्मत जुटाती और प्रदीप को आर्कषित करने की कोशिश में रहती थी|

उसने सुना था कि पति के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से गुजर  कर दिल तक जाता है | उसने नई व्यंजन वाली पुस्तक लाकर अच्छे अच्छे  व्यंजन बनाने शुरू कर दिए | अक्सर उस्की पसोड़ने उस्से पूछती थी,"आज क्या बनाया है आरती... जिसकी खुश्बू दूर दूर तक जा रही है| "

आरती जब व्यंजन मुस्कराते हुए प्रदीप के सामने रखती तो वहीं व्यंजन खाकर प्रदीप कभी तो चुप्प रहता तो कभी मूह से तारीफ निकल ही जाती ," सच ही कहा है किसी ने कि सुंदर स्त्रियां अच्छा खाना नहीं बना सकती | इस कटाक्ष पर आरती तिलमिला कर रह जाती ," तुम्हें इतनी बुरी लगती हूँ तो शादी ही क्यों थी मुझसे ?"

"पता ही नहीं मेरी आँखों को क्या हो गया था? या कहीं लड़की बदली तो नहीं गई थी| ?" प्रदीप ने बड़ी लापरवाही से बोला |

तब आरती का मन ज़ोर ज़ोर कर चींखते हुए कहने को कह्ता  ," हाँ.... हाँ.... हाँ पट्टी तो बंध गई थी आँखों पर पैसों की | " पर वह पता नहीं क्या सोच कर चुप्प रह जाती है|

प्रदीप के अंह को ठेस  पहुंचा कर संबधों में गांठ नहीं ड़ालना चाहती थी| वह तो उसे बाद में पता चलता है कि उसके पिता ने दहेज में मोटी रकम दी थी| जिसके कारण सौंदर्य के पुजारी प्रदीप ने आरती से शादी तो कर ली थी पर उसे अपमानित  करके भड़ास निकालता था|

बस यूँ ही रोते घुटते आरती का जीवन गुजर रहा था| उसकी बेटी भी हो गई थी| उसका रंग रूप भी प्रदीप पर गया था| बरना उसे भी आरती की तरह ताने सुनने पड़ते | अपने मन की व्यथा वह किसी को  भी कह नहीं पाती थी| तभी उसकी ज़िंदगी में एक और तूफ़ान आ गया| उसने देखा पड़ोस के खाली मकान में सामान उतर  रहा था|   एक छोटे बच्चे के साथ दंपति भी नज़र आ रहे  थे| आरती का स्वभाव वैसे भी मेलजोल रखने वाला था| नए पड़ोसी से परचिय पाते कुछ मदद  की आवश्यकता पाने के लिए पूछ्ने व चाय पर आमत्रिंत करने के लिए गई| उनके मुख्य दुआर पर पहुचंते ही वह ठिठक गई |

आरती मन ही मन कहने लगी कि अगर इसका आना जाना  हुआ तो प्रदीप को आरती की तुलना करने का मौका मिल जाएगा |हर समय पड़ोस में रहने से शायद इन्हें आर्कषित होने का मौका मिल जाए | बापिस चली जाँऊ या न नहीं| आरती अभी सोच ही रही थी कि इतने में वही महिला आरती के पास गई |

" आइये न बाहर क्यों रूक गई |  हम आपके नए पड़ोसी है|"

आरती चौंक उठी | चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा | यह तो संगीता है | बी.ए में उससे एक साल सीनियर थी |रंग रूप पर इतना घमंड़ था कि सीधे मूंह बात नहीं करती  थी | उसके चक्कर में घर से कॉलेज के रास्ते में जाने कितने लड़के मंड़राते थे| चलो ठीक है इतनी घमंड़ी किसी को पास फटकने नहीं देगी | पर यह क्या? उसकी आशा के विपरीत संगीता  ने बड़े प्रेम से उसका  हाथ ने पकड़लिया|
 
" तुम आरती हो न "फिर आरती से वह कितनी देर तक बातें करती रहीं |

उसके परिवार से परचिय पाकर आरती शाम की चाय पर निमत्रण देकर घर आकर  तैयारियाँ  करने में जुट गई | मन ही मन हैरान भी थी क्योंकि संगीता व उसके पति की जोड़ी भी बेमेल थी| उनके रूप में ज़मीन आसमा का अंतर था| लेकिन इससे उसे क्या लेना देना |उसकी परेशानी कुछ और ही थी| वह सोच रही थी| अब क्या किया जाए ?पुरानी पहचान निकल आई है किया भी क्या जा सकता है? मेल जोल बड़ा था तो प्रदीप उसे और भी हीनता का एहसास कराएगा | वैसे हो सकता है संगीता का घमंड़ी स्वभाव खुद ही दूरी रखने में मदद कर दे|

शाम को संगीता  आई तो बड़े प्रेम से मिली | शायद समय ने उसको बदल दिया| तभी प्रदीप ऑफिस से आया | उसकी निगाह जब संगीता पर पड़ी  तो वह आँख झपकना भूल गया | पद्रीप की हालत देख खिसयाई बिल्ली सी आरती ने संगीता और उसके पति से परिचय कराया ," ये हमारे नए पड़ोसी है |

प्रदीप मन ही मन खुश हुआ पल भर में  कितने विचार आ गए | मुश्किल से उसने मन के भावों   को नियत्रण किया |संगीता के पति देखकर उसके भाग्य से प्रदीप को इर्ष्या हुई | ना जाने कौन सी मज़बूरी में संगीता ने उससे शादी की | उसने सोचा ," चलो अच्छा है | ऐसे में वह संगीता को  जल्द ही आर्कषित कर लेगा| इनके पड़ोस में आने से जीवन में रौनक तो बढ़ जाएगी | कुछ देर आरती ने उससे औपचारिक बातें करते हुए पुन: निमत्रण दिया|

अब प्रदीप के जीवन में थोड़ा परिर्वतन आ गया था| ऑफिस में जाने से पहले  व बापिस आकर आधिकांश समय बाहर  लान में गुजरने लगा | कभी अखबार कभी  पत्रिका पढ़ने के बहाने तो कभी फूल पत्तियाँ तोड़ने के बहाने सारा ध्यान संगीता पर लगा रहता था| न जाने कब उसकी झलक मिल जाए  और आँखों को राहत मिले|

आरती यह सब समझती पर चुप्प रह जाती |इसलिए वह संगीता के आना जाना कम चाहती थी| प्रदीप ने आरती को कई बार संगीता के घर चलने को कहा | पर आरती ने कई बार बड़ी सफाई से टाल दिया | हालाकिं संगीता व आरती एक दूसरे के यंहा आती जाती रहती थी| प्रदीप के व्यवहार और उतावलेपन को देखते हुए आरती चाहती थी| कोई अप्रिय घटना होने से पहले यां तो यह मकान बद्ल ले यां तो इनका तबादला हो जाए |

एक दिन आखिर हुआ वहीं जिसका आरती को ड़र था|  बातों ही बातों में संगीता ने आरती से कहा ,"क्या बात है ?पति से कुछ झगड़ा चल रहा है क्या ? ज्यादातर वह बरामदे में बैठे प्रदीप का ध्यान कहीं ओर ही रहता है ?"

आरती के दिल का दर्द आँखों के रास्ते  बह निकला | उसने संगीता के सामने दिल का हाल रख दिया | "मैं तो उनको शुरू से पसंद नहीं थी| हमेशा खूबसूरत स्त्रियों की प्रशंसा और मुझे द्र्ष्टीहीन से देखना | बस यहीं हाल रहा है | तुम्हारें आने के बाद कोई दिन ऐसा नहीं गया जिस दिन तुम्हारी चर्चा न कि हुई हो? "

फिर वह प्रदीप के दोष छुपाते हुए बोली," वैसे इसमे प्रदीप का क्या दोष ? तुम तो हो ही इतनी खूबसूरत कि मेरी निगाहें भी तुम पर से हटती ही नहीं फिर वो तो पुरूष है | "

" आरती मुझे तुम्हारी नादानी पर हैरानी हो रही है | लोग तुम्हारी तारीफ करते थकते नही थे| और उसने तुम्हें घर की मुर्गी को दाल के बरावर समझ रखी  है| " फीकी मुस्कान के साथ संगीता ने आरती को स्तांवना दी |

एक दिन आरती संगीता आरती के यंहा आई | तो वह उदास बैठी थी| संगीता ने कारण पूछा तो उसकी आँखों में पानी भर आया| बोली " खबर आई है मेरी माँ की तबीयत खराब है और वह मुझे मिलना चाहती है | "

" तो क्या है चली जाओ" संगीता बोली | " समस्या प्रदीप की है | ऑफिस में ज़रूरी काम के कारण साथ नहीं जा सकते और यंहा अकेले रहने से उनके खाने पीने की परेशानी  हो जाएगी | " आरती ने समस्या बताई |

कुछ देर चुप्प रह कर संगीता बोली "ह्म्म ... कुछ दिन घर से दूर रहना भी ज़रूरी होता है| तभी दूसरो की अहमियत की पता चलती है| वैसे अगर प्रदीप को दिक्कत न हो तो खाने का प्रबंध मेरे यंहा भी हो जाएगा |"

" नहीं....नहीं.... नहीं तुम क्यों परेशान क्यों हो रही हो?" आरती ने कहा |

" अरे ... यंहा दौ दौ लोगों का खाना बनता है|वंहा एक और का सही | क्यों आरती  ठीक है  न |" संगीता बोली |

आरती ने प्रदीप  की सारी बात बताई |

" जैसा तुम लोग ठीक समझो |लंच ऑफिस से ले लूंगा| ब्रेकफास्ट और ड़िनर संगीता के यंहा कर लिया करूगां| " प्रदीप मन की खुशी छुपाते हुए बोलता है |

 प्रदीप की तो मन की मुराद पूरी हो गई | प्रदीप मन ही मन कह रहा था कि आठ दिन तो क्या अठारह दिन रह आओ | संगीता के पास जाने और उसके साथ अधिक समय बिताने का इससे अच्छा अवसर और कंहा मिलेगा ? और एक दो उपहार देकर संगीता को खुश भी कर देगा| शायद संगीता भी उस से यहीं चाहती है |तभी उसने खुशी से हामी भर दी | संगीता और उसके पति की जोड़ी बेमेल थी| प्रदीप के साथ  होती तो जोड़ी कितनी फबती| यही सोचता प्रदीप आरती के पास बैठ गया |

आरती उस दिन का खाना फ्रीज़ में रख आई थी | कोफ्ते, रायता , पुलाव सभी

कुछ  प्रदीप की पसंद का था |बड़े  बेमन  से प्रदीप ने खाना गर्म  करके खाया | वह तो सपनों में ड़ूब हुआ बेताबी से अगली सुबह की प्रतीक्षा कर रहा था| आठ बजे बिस्तर  छोड़ने वाले प्रदीप की आँख सुबह सुबह खुल गई|

वह झटपट नहा धोकर बड़े मन से तैयार हुआ |बढ़िया सी पैंट शर्ट ड़ाली  और स्प्रे किया | आज तो उसका समय काटे नहीं कट रहा था|

अखबार से नज़रे ह्टाकर बार बार संगीत के बरामदे में जाने लगा ," क्या संगीता नहीं जानती उसे ऑफिस नहीं जाना है| फिर उसे संगीता का निमत्रण याद आया |जब भी आपको आवश्यकता हो नि:संकोच चले आइये गा|"

प्रदीप ने सोचा देर करना ठीक नहीं शायद वह नाश्ते की तैयारी में व्यस्त हो |घर को ताला लगाकर वह संगीता के घर चल दिया |संगीता के घर की घण्टी बजाने पर नौकर ने दरवाजा खोला |

प्रदीप ड्राईंग रूम में बैठा तो आठ दस मिन्ट बाद नौकर ने चाय के साथ ब्रेड़ बटर, नमकीन  बगैरह रख दी और बोली," आइए नाश्ता करिए .. मैड़म बस आती ही होगी |"

प्रदीप को मलाल हो रहा था कि संगीता खुद नहीं आ सकती थी| लेकिन ऑफिस के समय को याद करके रूखा सूखा खाने लगा | थोड़ी देर में सजरी संवरी संगीता आई और बोली," माफ़ करिएगा मैं तो भूल ही गई थी कि आप आने वाले है इस

लिए जल्दी में कुछ बना नहीं सकीं |"

प्रदीप पर संगीता का नशा चढ़ा हुआ था इसलिए बुरा नहीं माना| दिन का खाना कैंटीन में खाया | और अगले दिन फ्रेश होकर संगीता के यंहा पहुंचा तो संगीता के पति ने उसका स्वागत किया | प्रदीप ने अभी तक ड्राइंगरूम की हद भी पार नहीं

की थी| भोजन कमरे के अंदर आया तो उसका सिर चकरा गया चारो तरफ बेतरज़ी से सामान  बिखरा पड़ा हुआ था| उधर से ध्यान भटका कर नाश्ता खाना शुरू ही किया तो मन ही मन जल उठा | इतना बेस्वाद खाना आरती ने कभी नहीं बनाया था|  क्या संगीता को अपने रूप सौंद्रय को संवारने के अतिरिक्त कोई और काम नहीं आता|

साथ ही खाने की मेज़ पर उसका सारा ध्यान बच्चों और पति पर ही केंद्रीत था|  झुंझलाया सा प्रदीप घर आ गया |

अगले दिन प्रदीप की उत्साह पहले जैसा नहीं था| पिछले दौ दिन के अनुभव ने उसे अनमना कर दिया था|  फिर भी कहीं संगीता बुरा न मान जाए | वह संगीता के यंहा पहुंचा तो आज फिर नौकर ने ही उसका स्वागत किया | घर की वहीं हाल था " कैसी गृहणी है संगीता ?घर भी साफ सुथरा नहीं कर सकती |एक आरती है क्या मज़ाल घर में ज़रा भी धूल मिट्टी रहने दे | फर्श भी दर्पण सा चमका कर रखती है|

आज फिर नौकर कल जैसे रूखा सूखा खाना आगे रख गया | प्रदीप सुलग सा गया |  ऐसा नाश्ता तो आरती ने कभी नहीं कराया था| घर में बने नाश्ते में मनकीन,मिठाई के ड़िब्बे भरे रहते थे| कोई भी मेहमान  चार दिन के लिए आ जाए तो रोज़ रोज़ नए नए पकवान बनते थे| और यंहा संगीता को कोई सुध नहीं है| प्रदीप का मन हुआ कि नाश्ता छोड़कर उठ आए | तभी इठलाती हुई आई|

"अरे... आप ने तो कुछ लिया ही नहीं | दरअस्ल मैं उनके कामों में लगी रही| सुबह तो इन्हें बच्चो की तरह  एक एक चीज़ देने पड़ती है| इसलिए कोई काम नहीं हो पाता | आप लीजिए न ..."

पर प्रदीप का स्वाद कसैला हो गया था | प्रदीप सोचने लगा ," क्या आरती को घर

के काम नहीं पड़ते | इसे सजने सवरने से फुरसत मिले तब कुछ करे न ....  | "

संगीता के रूप का जादू धीरे धीरे कम हो रहा था| वह सोच रहा था कि शाम के खाने में  क्या होगा ? उसे लग रहा था|कि वह अनचाहा मेह्मान है संगीता  की बेरूखी नए उसे हक्कीत समझा दी थी|

उसका मन हुआ शाम के खाने के लिए मना कर दे पर जाने क्यों मन नहीं कर सका|

शाम को थका हारा प्रदीप घर लौटा तो चाय की तलब  हुई | आरती होती तो बिना कहे चाय आ जाती थी|प्रदीप  सोचते हुए चाय बना रहा था| थोड़ी देर बाद वह संगीता के घर चला गया | दरवाजे पर पहुंचा था कि अंदर से आवाज़ आ रही थी," क्या फर्क पड़ता है? कौन सा वह खाना खाने आता है | सौंर्दयपान करने ही तो आता है| और उसके बाद भूख किसे रहती है?"

प्रदीप ने कोशिश की पर पहचान न पाया कि आवाज़ किसकी थी | उसे पूरी उम्मीद थी कि शायद संगीता की ओर से प्रतिक्रिया आए |कहने वाले को चुप्प कराने की आवाज़ आई |लेकिन हल्की सी हंसी के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं दिया
| अपमानित सा प्रदीप दबे पाँव वापस आ गया | बस खूबसूरती का नशा उतर गया था| उसे आरती की बैइंतहा याद आने लगी |आखिर वहीं तो उसकी है|

रंग सांवला है तो क्या हुआ?और तो कोई कमी नही है उसमे? मैं भी हीरे की कद्र नहीं कर पाया | यहीं सोच के प्रदीप ने संगीता को कॉल करके कहा ," सारी ...आज कुछ दोस्तो ने पार्टी दी है रात के खाने पर नहीं आ सकूगां?"

दूसरी कॉल आरती के यंहा की | फोन आरती ने उठाया|प्रदीप ने आरती से बोला ," माँ की तबीयत कैसी है? कब आ रही हो?"

" तबीयत तो ठीक है पर अभी मुझे आए यंहा तीन दिन ही हुए है ! " आरती ने हैरानी से कहा |

तो क्या  मैं तुम्हें कल लैने आ रहा हूँ | "प्रदीप ने बोला|

आरती का मन हुआ था कि पहले उससे पूछे  कि क्या सुंदर हाथों की मीठी रोटियां नहीं मिली |"

प्रदीप को क्या पता था कि उसे और आरती को एक दूजे को करीब लाने का उपाए फ़ॉर्मूला काम कर गया था | और सच में सुसराल वालो के रोकने पर भी प्रदीप आरती को घर  ले ही आया था | अब वह बदल चुका था |

आरती भी इस परिवर्तन हैरान थी क्या वही प्रदीप है जो बात बात पर उसका मज़ाक उड़ाता था और ताने मारता था|  हर काम में खोट निकालता था |

काम करती हुई आरती के पास जब भी प्रदीप खड़ा हो जाता था|  और उसे मुग्ध द्रष्टी से निहारता था | और आरती रोमाचिंत हो उठती थी| लेकिन उसकी समझ से यह बात बिल्कुल परे थी  कि आख्रिर यह हुआ कैसे?

 

 

Saroj Bala

From kathua jammu Kashmir

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