कल और आज वैलेंटाइन और क्वॉरेंटाइन

कल और आज वैलेंटाइन और क्वॉरेंटाइन

हास्य कविता

कोप-भवन का था जमाना 
सम्राट ,राजा, राजवाड़ों का वैभव पुराना ।
पटरानियाँ गुस्से में सूर्ख रंग बिखेरती,
तमतमा कर कोप भवन का वे रुख करतीं  ।।

फिर प्रेम, मधुरिम ,सावन बरसता ,
कोप-भवन के किवाड़ पर मिन्नतें हजार होता।
फरमाइशें असंख्य प्यार के जल तरंग मचलते, खुशियाँ लौटती ,मोहब्बत अभिभूत, गले मिलते।।

एक दिन पत्नियों ,प्रेमिकाओं ने गुहार की,
लोकतंत्र के आगे खूब फरियाद की ।
तेरे आने से कोपभवन खत्म हो गया ,
रजवाड़ों का सबसे सुखद स्थल सिमट गया ।।

सभ्यता क्या आगे बढ़ी रूठना मनाना कम हुआ 
कोप भवन का आराम हमसब को ना नसीब हुआ। लोकतंत्र ने कहा तुम्हें विचारों की आजादी है, वैलेंटाइन, रोज डे ,कहाँ कोई पाबंदी है ।।

पार्क में, मॉल में, खुलेआम 
गलबहियाँ इश्क फरमाती हो ।
गुस्सा आए तो मोबाइल स्विच ऑफ कर,
कोप भवन में ही तो चली जाती हो ।।

चढ़ता है परवान,
समर्पित होते हैं गुलाब।
आफताब अपने महबूब से ,
मिलते हैं चाँदनी से महताब ।।

मोबाइल के फीचर्स ही 
कोपभवन का दर्शन है ।
स्टेटस ,इमोजी सब 
लंका के विभिषण है ।।

शायद लोकतंत्र महाराज को दया आ गई,
फरियाद उसने सुनी एक कोप भवन बना दी।
क्वरंटाइन के रूप में कोपभवन सुंदर सजाई
प्रेमी युगलों का मिलना बंद, दिखाई बड़ी प्रभुताई।।

आज इजहारे- इश्क बस ,
मोबाइली दुनिया में स्वतंत्र है।
कोप भवन बना जग सारा,
परिंदों की तरह परतंत्र है।।

इस क्वरंटाइन ने,
लोकतंत्र को बड़ी आजादी दी।
नेता ,अभिनेता ,अफसर, 
गँवार ,देवता सबको बर्बादी दी।।

क्वरंटाइन समाजवादी ,
सुधार केंद्र बन गया।
सुधार तो ना हुआ ,
एटम बम बन गया ।।

इस केंद्र में जाने से ,
सबका दिल दहलता है ।
कोई सुधार करना नहीं चाहता,
सब समाज -सुधारक समझता है ।।

वैलेंटाइन डे मना कर ,
बाँछें खिल खिल जाती है।
क्वरंटाइन से आकर जिंदगी 
जिंदगी से रूबरू हो जाती  है।।


अंशु प्रिया अग्रवाल
मस्कट ओमान 
स्वरचित 
अप्रकाशित 
मौलिक

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