मन के द्वार

बदलाव मंच हेतु स्वतन्त्र विषय पर प्रतियोगिता हेतु
विधा: कविता
प्रकार: स्व:रचित एवं मौलिक

शीर्षक: 'मन के द्वार''

जब कोई देता है दस्तक, मन के द्वार पर...
मन घूम जाता है उनकी ओर
वो कहते नही कुछ कभी,
और उनका एहसास
छाया हुआ है मेरे मन पर
उन्हें पास लाने का मन है
उनमे ही समाने का मन है
जिनकी नजरें मेरी नजरों से टकराकर
देती हैं दस्तक, मेरे मन के द्वार पर
जिनकी बांहे चलते हुए टकरा जाती हैं
और काशिश देती हैं, चुभन भरी
कि हर घड़ी, हर पल
इस चुभन को पाने का मन है
और इस पल;
इस दस्तक को सुनने का मन है
अगर मन नही करेगा कि सुनाई दे दस्तक
तो छा जाएगा खुमार, मेरे मन के द्वार पर
जब कोई देता है दस्तक, मन के द्वार पर...
छाया ख़ुमार टूटेगा टक से
जब देगा पुनः दस्तक कोई झट से
टकराएंगी नजरें और बाहें फिर से
खिलेंगे फूल मेरे मन के आँगन में
सुनेगा दस्तक जहां सारा
और कहेगा यही फिर से
जब कोई देता है दस्तक मन के द्वार पर...
मन घूम जाता है उनकी ओर
जो कहते नही कुछ कभी और जिनका अहसास
छाया हुआ है मेरे मन पर
जब कोई देता है दस्तक मन के द्वार पर.....

डॉ. लता (हिंदी शिक्षिका),
नई दिल्ली
©

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