आँसू में भींगे पकवान
जवान बेटा, दुर्घटना में चल बसा,,
क्षत-विक्षत लाश घर आई है,
घर का चिराग बुझ गया,
बहुत पैसा इलाज में खप गया,
आर्थिक व्यवस्था चरमराई है
मृत्यु भोज की चिंता ,उभर आई है।।
माता रो रो क्रंदन करती,
किन कर्मों की सजा पाई है,
पिता हजार बार कोसते,
सिर धुन धुन कर आलाप करते,
पुत्र को कांधा देने की,
बुरी नौबत क्यों आई है?
पंडित जी कहते हैं,
शास्त्रों की बातें करते हैं
ब्राह्मण भोज से,
आत्मा को शांति मिलती है,,
हलवा पूरी पकवान खिलाकर,
स्वर्ग के द्वार खोलती है।।
आज फिर सोलह पकवान,
बनाने की तैयारी थी,,
पर रो रो कर सब कुटुंब की,
आंखें बोझिल ,भारी थी,
कुलदीपक घर का बुझा था,,
सोच सोच कर दिल दहला था।।
आंसुओं से भींग रही थी,
लड्डू की हर बूंदी,,
रो-रो कर गुंथ रही थी,
आटे की हर गोली,,
करुणा की धार बहती है,
कलेजा फटती है, छलनी होती है।।
पूरे गांव समाज को न्यौता है,
बारहवीं भोज यह, कैसा समझौता है?
बेटे की आत्मा को,
शांति देने की तैयारी है,
हलवा -पूड़ी, पकवान खिलाकर
स्वर्गद्वार खोलने की खरीदारी है।।
कैसी यह कुरीति है,,
मृत्यु भोज अनीति है,,
खुशी-खुशी ,
पकवान उड़ाते,
शोक मनाने,
का ढोंग रचाते।।
पंडित जी, घर आए हैं,
हाथ मुख धोते, कुल्ला करते,,
भाग्यवान ओ भाग्यवान,,
आज दूध नहीं पीऊंगा,,
पेट को सहलाकर,
सोलह पकवान डकार जाते हैं।।
(-स्वरचित-अंशु प्रिया अग्रवाल
मस्कट ओमान
स्वरचित
सर्व मौलिक अधिकार सुरक्षित)
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