पुष्कर राज आबूतीर्थ यात्रावृतान्त

पुष्करराजआबूतीर्थ यात्रावृतान्त
मित्रों!शास्त्र प्रमाण है कि सद्गुरु का सान्निध्य, सुह्रद मित्र व परमहितैषी परिजन भार्या आदि परमसौभाग्य व पूर्वजन्मों के सिंचित पुण्य कर्मों के सुफल से ही प्राप्त होते हैं। मैं भी उन्हीं चुनिन्दा सौभाग्यशाली व्यक्तियों की पंक्ति में शुमार हूँ, जिन्हें तीनों ही प्राप्त हुए है। कोरोना काल की विशंगति, परेशानी व उत्पन्न वित्तीय संकट से सभी सुपरिचित है। इस मायुशी के दौर में मेरा परिचय राजराजलेश्वर परिवार से हुआ जो पिछले पाँच वर्ष से ज्यादा समय से लगभग समुद्र तल से ८०० मीटर से अधिक की ऊँचाई पर स्थित राजराजलेश्वर महादेव की सेवा करता आ रहा है। सुह्रद अर्जन का ऋणी हूँ जिसने मुझे इस परिवार से जोड़ा। प्रकृति की गोद में बसे राजलिङ्गेश्वर पर्वत की उपत्यका में मुक प्राणियों की सेवा के पूनीत कार्य में सेवारत बडे भ्राता सुरेशजी, प्रवीणजी,अमृतजी, प्रमोदजी, अशोकजी, सूजारामजी व अनुज पीयूष व अन्यगणमान्य सदस्यों को हृदय से अन्नतशुभकामनाएं व अभिनन्दन कि वे इस मंङ्गल कार्य में आजीवन प्रवृत्त रहें। मैं भी इस वर्ष श्रावण में माह पूर्ण माहसेवा के संकल्प से जुडा था। ताईजी के कोरोना पोजीटीव आने से कुछ विघ्न आए पर अन्नतर मैं पुनः उनके नेगेटीव व सुस्वस्थ होने पर इस यज्ञ में अपनी आहुती के लिए कृतसंकल्प ह़ुआ। देवनगरी सिरोही में न तो मन्दिरों की कमी है और न ही साधु संतों की। पुष्कराज तीर्थ आबूराज में चातुर्मास निमित्त पधारे प्रातः स्मरणीय प्रथम पूजनीय दिव्य संताशिरोमणी श्री श्री १००८श्री चन्दन गिरीजी महाराज साहब के दर्शनार्थ जाने की योजना का समाचार अमृत जी से जैसे ही प्राप्त हुआ सबकी खुशी का ठीकाना ही न रहा। एक दिवस पूर्व बनी योजनानुसार सुबह जल्दी राजराजलेश्वरजी की सेवा के अन्नतर जल्दी नीचे उतरकर करीब अठारह जनों ने अपनी रजामन्दी जाने के लिए दी। उसी अनुसार सामाजिक दूरी का पालन करते हुए दो चार पहिया वाहनों से यात्रा प्रारम्भ हुई; चूंकि हमें काफी विलम्ब हुआ था इसलिए यात्रा मांकरोडा ईसरा से खाखरवाड़ा व काछोली होते हुए फूलाबाई खेड़ा से फली पहुँची। वहाँ सभी वाहनो से उतरे पानी पीया फिर नदी मार्ग जो आगे बढ़े जो धीरे दो पर्वतों के बीच तंग रास्ते दर्रे में तबदील हो गया। यह करीब ४ से ५ किलोमीटर की यात्रा थी, तेज उमस ने कुछ ही देर में इन्द्रदेवता को वृष्टि के विवश कर ही दिया। श्रद्धा और आस्था ही तो पत्थरों को भगवान् बनाते है इसने हमें ऐसे बांध लिया है आपस में जैसे कोई पूर्व जन्मों का बंधन हो। बीच बीच में पीछे रहते प्रवीण जी सबको साथ रहने व चलने की सीख दें रहे थे और खुद छायाछित्रों का आनन्द लूटते हुए पीछे रह रहे थे और धीरे धीरे चलते हए हर क्षण हर पल प्रकृति को बहुत पास और नजदीक से देख रहे थे, जी रहे थे;मानो खो गए हो। साथ में प्रमोद जी  ने उनका खूब सहयोग किया। दोनों भाईयों ने शायद ही कोई मुद्रा छोड़ दी हो जिसमे छायाछित्र न लिए हो।अमृत जी ने शायद ही कोई दृश्य छोडा हो जो अनेक ४ कैमरे वाले फोन में कैद न किया हो। उनका साहस प्रशंसा के योग्य है फिर शायद शब्दों में न कर सकूं। वस्तुतः इस पूरे कार्यक्रम के सूत्रधार अमृत जी ही थे। राह चलते बारिश ने इस फोटोग्राफी के दौर को तरंग की तरह दल में दौड़ा दिया। बस फिर क्या था? आगे चलते सुरेशजी, प्रकाशजी, अशोकजी व सुजाराम जी भी लग गए इस कलाकारी में, छोटे पीयूष, महेन्द्र व अन्य ने खूब आन्नद लूटा। आगे भागकर शैल खण्डों पर चढ़कर छायाछित्र लिए, अब हमारी बारी थी अनुज पीयूष, सिद्ध व रवि व मैं और सुह्रद अर्जुन भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। मुद्राएं प्रकृति सिखाती गयी और हम आनन्द के चरम पर पहुँच छायाचित्रों में कैद होते गए। पीयूष परम जिज्ञाषु व ज्ञान पीपासु है जब मेरे पास आता है धर्म कर्म व अध्यात्म की चर्चा से मुझे झकझोर देता है। उसके तर्क भरे सवालों से मेरी आत्मा पवित्र ही होती है। मुझे उसके तर्कभरे प्रश्न ओर उसके करीब लाते है, मानो वो मेरा अनुज ही है। कोई चट्टान भगवान शिवलिंग स्वरूप तो कोई शेषनाग स्वरुप जान पड़ती। पीयूष के तर्क और यात्रा का अगला पडाव। दर्रे में बहता झरना सूखा था पानी नहीं बह रहा हाँ! लेकिन तेज बहाब व स्थाई जलभराव की कहानी बडे- बडे शैलखंडों पर बने काले चिह्न कह रहे थे। रास्ते में चलते दो बार चलते हुए चट्टान पर पैर फिसलते फिसलते रहा "जाको राखे साईंया मार सके न कोय।"पर अमृत जी तेज चलने व सबका मार्गदर्शन करने से फिशल ही गए लेकिन प्रभु कृपा से कोई चोट नहीं आयी। दर्शन लाभ लेकर लौटते श्रद्धालुओं की लम्बी कतार से सुनते सुनाते जय जय श्री राम, जय शंकर, जय महादेव यात्रा की थकान कम तो कर ही रहे थे साथ ही साथ पुष्कर तीर्थ व गुरुदेव से दूरी का पता भी दे रहे थे। आखिरकार करीब 2 घंटों की चढ़ाई व पैदल यात्रा से अंतिम कुछ सीढ़ीया चढ़, हम पहुँच गए आबूराज पुष्कर तीर्थ में, करीब १.३० बज रहे थे तेज धूप व उमस सब था बस यात्रा कि थकान न थी। शायद इसलिए कि पिछले ३ वर्षों से दर्शन की जो अभिलाषा ह्रदय में दबी थी वो आज हिलोरे मार पूरी जो होने जा रही थी। ह्रदय में अपार हर्ष व आन्नद संजोए हम सभी ने दर्शन लाभ लिया। दाता अर्थात जो देने वाला हो इस नाम से सम्पूर्ण आबू क्षेत्र व निकटवर्ती गुजरात में लब्धप्रतिष्ठित व सुप्रसिद्ध संत श्री के श्रीमुख से आगमन का कारण व कहाँ से आएं?सुनकर सभी गदगद हो गए। सुरेशजी ने बड़ी आशाभरी दृष्टि से प्रथम वंदन व निवेदन सभी की ओर से यह कहते हुए किया कि भगवन् आपके दर्शन की लालसा में, इस पर सभी को लहर करो का आशीवार्द मिला। मन ही न कर रहा था इस सुखद संयोग से हटने का पर कोरोना काल के कारण किसी भी वस्तु को स्पर्श करने की स्पष्ट मनाहीं थी। दाता उपर धूणी के पास बीराजे थे जो काफि ऊँचा था। बहुत सख्ती और पाबन्दी के साथ यह मंङ्गल घटित हुआ अगर थोडा भी विलम्ब होता तो शायद दर्शन मुश्किल थे क्यूंकि उनके विश्राम का समय हो चला था। ऊपर गोमुख से बहती गंगा की निर्मल धारा का रसपान किया। निर्माणाधीनमंदिर व अत्यंत प्राचीन स्वयंभू आदि-अनादि शिव के दर्शन लाभ से सभी कृतकृत्य हो गए।वहीं प्रसाद की व्यवस्था भी भक्त मंडली द्वारा थी जिसमें राजगीरे के आटे का हलुआ, चावल, आलू की रस्सेदार सब्जी व बाटे भी  थे। सभी प्रसादी लेना चाहते थे लेकिन स्वास्थ्य कारण व साथ में फलाहार होने व व्रत उपवास होने से यह सौभाग्य मुझे, अमृतजी, अशोकजी, सुजारामजी प्रकाशजी व उनके पुत्र पीयूष, सिद्ध व रवि को ही प्राप्त हो सका। वैसे उपवास मेरे भी था पर मैं ठहरा भोजन भट्ट फिर भला प्रसाद से स्वयं को कैसे पृथक् रख पाता। पत्तल में जीवन की अब तक कि यात्रा में तीन बार ही भोजन ग्रहण हुआ है। स्वाद क्या था? और कितना आनन्द भोजन दे रहा था, शब्दों में सदैव अवर्णनीय ही रहेगा।हम प्रसाद लेकर जैसे ही बाहर आए वहाँ का नजरा कुछ और ही था। प्रमोदजी घर से भाभीजी के हाथों से बने स्वादिष्ट पराठें, दही, छाछ व साबुदाने के पकोडे लाए थे। वैसे सभी के पास कुछ न कुछ था खाने के लिए, सभी लाए थे। मेरी भी माताजी ने स्नेह भरे हाथों के श्रम से प्रेम रुपी तेल में तलकर साबुदाने की पापड़ी डाली थी। वैसे लिङ्ग भेद किसी कार्य में अब बाधक न रहा है? पर पाककला में भारतीय नारियों का स्थान युगों युगों से न कोई ले सका है और न कोई ले सकेगा। नमन है उनके इस अद्वितीय व अप्रितम श्रम को फिर क्या था? प्रवीण जी, प्रमोदजी, सुरेशजी, मित्र अर्जन व नयन को माताओं के हाथों का स्नेह स्वाद चखते देख। हम सभी भी दूसरी बार फिर लग गए। चट्टानों पर बैठकर वृक्षों की छाया में मिला अमृत जीवन में बार- बार कहाँ मिलता है। हम मेसे बहुत तो यह अमृत पान प्रथम बार ही कर रहे थे। काफि वीडियों रिकोर्डिंग व छायाचित्रों के बाद बड़े अनमने भाव से रवानगी प्रारम्भ हुई। वैसे किसकी का मन वापस लौटने का न था पर गृहस्थ जीवन की कई मर्यादाएँ है जो अनजाने ही कई जिम्मेदारियों के बंधनों से बांध देती है सो निकलना ही पडा। एक शिक्षक कहीं जाएं और उसे उसके शिष्य न मिले भला यह कैसे सम्भव है? वीरेन्द्र व उसके माता- पिता के साथ सुखीजीवन की कुशल चर्चा व उसके भावी भविष्य को लेकर चिंतन के साथ हम आगे बढ़ चले। कुछ ही देर में वर्षा फिर से प्रारम्भ हुई जो कुछ तेज थी। कोई आगे  बढ़ता तो कोई पीछे रह रहा था; पहाडों के बीच फंसे बादलों से मिलन को सभी बेताब थे। बरसता पानी यात्रा में समाँ बांध रहा था। खूब छायाचित्र लिए गए। कुछ सभी ने अकेले के लिए तो अधिकतर सभी ने दल में ही लिए। रवि, मैं और मित्र अर्जुन तो मानो प्रकृति में खो ही गए थे। न कोई गम था न कोई भान बस आनन्द ही आनन्द था। प्रवीणजी ने बड़े सहज भाव से बड़े प्यार से अमृतजी को दो किलो मावा खिलाने के वादे के साथ लगभग ३०० फोटो खिंचवा लिए, साथ देने को प्रमोदजी व नयन तो थे ही जो अधूरा ही रहा।डॉक्टर साहब और मीना जी ने भी पल-पल बदलते प्रकृति के नजारों को यादों में संजोया व सभी के साथ फोटोग्राफी के आनन्द को भरपूर लूटा। रवि तो ऐसा खो गया वादियों में कि बड़ी मुश्किल से ढूंढ निकाला। बार बार जल्दी चलने की आवाजों से परेशान होकर हम सब दोस्तों ने आखिरकार यह वादा कर ही डाला कि फिर लौट कर आयेंगे पर बूढ़ों के साथ नहीं। खुद आनन्द लूटे और हमें भगाएं। चलते-चलाते भागते-भगाते आखिरकार हम फिर से फली पहुँचे जहाँ से पैदल यात्रा प्रारम्भ की थी। वहाँ पूरे दल ने स्वयं को अलग- अलग कोण से अपने- अपने मोबाईल के कैमरे में दल को कैद किया। फिर सभी वाहनों में बैठे व चन्दनगिरी जी महाराज साहब, आबूराज के जयघोष के साथ यात्रा अगले पडाव के लिए निकल पड़ी।..........
यात्रावृत्तकार 
खुशवन्त कुमार माली उर्फ " राजेश" सिरोहीवी,सिरोही राज.।

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