प्रदूषण का कैक्टस

प्रदूषण का कैक्टस 


मरुस्थल बनती ये धरती 
अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहती ।

चारों दिशाओं में 
प्रदूषण के कैक्टस।
मंडराते रोष के बादल 
बरसाते घोर असंतोष।।

धुआँ आतंक का साम्राज्य
कर रही  विलाप धरा आज।।

मानव में संवेदना शून्य ,
हर रिश्ते का हुआ है खून ।
वृक्षहीन होती प्रकृति 
बनती जा रही जर्जर परती।।

भाव शून्य होती मनुष्यता
अधोगामी अपनाती बर्बरता ।।

ओजोन में बढ़ता छेद,
दिलों में बढ़ता मतभेद ।
मन प्रदूषित ,भाव प्रदूषित ,
मानवीय हर विचार कलुषित।

सूख चुकी करुणा प्रेम की फुहार।
आत्मीय भावनाओं की मीठी बौछार।।

सूख गए आम, 
फल -फूल एवं अंजीर ।
नदियों में बढ़ने 
लगा तेजाबी नीर ।।

हिंसा अन्याय कर रही तांडव।
क्यों बने हम द्रुत क्रीड़ा पांडव ?

सृष्टि कर रही चीत्कार।
फैला कोहराम हाहाकार।।
आकाश धरती सब हुए विषाक्त।
हर हृदय संदिग्ध विषाद।

क्या नहीं कटेंगा कँटीले, प्रदूषण का कैक्टस ?
नहीं मिटेगा मानवीय ,मूल्यों का ह्रास?

प्रकृति रूपी द्रौपदी की 
आह सुनाई नहीं देती 
लुटती सभ्यता की करुण 
पीड़ा दहला नहीं जाती।। 

चेतना के कृष्ण क्यों सुप्त है आज? 
कर्म प्रवर्तक क्यों विवश लाचार?

नहीं आएगी हरियाली 
प्रकृति के बहारों में।
आत्मीयता की गंगा इन 
पिपासु मानव कंठो में।।

अंशु प्रिया अग्रवाल 
मस्कट ओमान
स्वरचित मौलिक अधिकार सुरक्षित

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