स्वरचित मौलिक रचना
भले जिंदगी में मेरा सहारा नही।
आज तक मैं ख़ुदसे हारा नही।।
क्या फिक्र कोई साथ दे या ना दे मुझे
मैं अंनत काल का बटोही रुकना गवारा नही।।
मैं चलना कभी भी क्यों छोड़ूँ भला।
अपने तलवार से क्यों काटू गला।।
चाहे हो कितना भी कांटे राहों में।।
चाहे ज्वलंत अंगारे हो राहों में।
चलूंगा सदैव मुझे डरना गवारा नही।।
देखो तुम पलट कर इतिहास को जरा।
सन्देह ना हो ,जो जगाओ विस्वास को जरा।।
वही है सदा जीता जो स्वयं चलना सीखा।
बैसाखी छोड़ जिसने खुद पर भरोसा किया।
मैं भी हूँ राम का वंशज जिसने कर्तव्य के
पथ पर रुकने को बिल्कुल विचारा नही।
एक हौसला ही मेरा अन्ततः आधार है।
जो छोड़ गए चाहे जो साथ है
उन सभी लोगो का ही आभार है।
और वो दूजा कोई शहारा नही।।
लक्ष्य के बिना तो मर जाउँगा।
खुदके नजरो में गिर जाउँगा।
कस्ती मन्जिल की ले चला
अब चाहे मीले किनारा नही।।
©प्रकाश कुमार
मधुबनी, बिहार
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