कवयित्री सीमा तोमर जी द्वारा 'मन की गठरी' विषय पर रचना

जो पढ़ सके मन के भाव  और करता हो कविताओं से प्रेम वह अवश्य पढ़े

शीर्षक -मन की गठरी 
अरे कोई "मन की गठरी" लेलो रे "मन की गठरी "
अरे कोई खरीददार हीं  नही मिल रहा 🤔🤔
कुछ चाहा था क्या मेने तुमसे 🤔??
जरा याद करू ठीक से.. 
हां याद आया चाहा तो था "मन से मन का मिलना "मगर शायद नही पसंद ना आया हो तुम्हे ?

यही तो चाहा था मेने तुमसे
 "मन का प्रेम "
मन का लगाव 
मन का जुड़ाव
मन का फैलाव 
मन का सुनना 
मन का कहना 
मन का पूछना 
मन का चुनना 
मन का हसना 
मन का रोना 
मन का मिलना 
मगर शायदमुझे हीं दुनियादारी कि समझ थोड़ी कम है 
अरे पगली दुनियादारी क़े बाज़ार में ये सब थोड़े हीं बिकता है 
इन्हे तो कबाड़ी भी नही लेता !!

तुझे समझ हीं नही कि दुनिया क़े सौदागरों को क्या चाहिए ??
अरे सौदा  करना था तो थोड़ी महगी चीजों का  करती .... क्या मन का साजो सायं लेकर बैठी है 
तेरी जिंदगी  निकल जाएगी पूरी 
मगर "मन कि गठरी"का कोई खरीददार  न मिलेगा  

ऐसे हीं चली जाएगी उस ईश्वर क़े पास इस "मन की गठरी" को बांधकर 
तेरे मन कि कोई market value नही है 
थोड़ा इसे "लाग लपेटलर "बेचती 
सजाकर बेचती 
इतराकर बेचती 
इठलाकर बेचती 
कौन खरीदेगा तेरी सहजता को 
तेरी सरलता को 
तेरो कोमलता को 
तेरे मन क़े प्रेम को 
ढूढ़ना है तो "ईश्वर क़े
 प्रेम का  बाजार "ढूढ़
वहाँ  बिकता है" मन का प्रेम "
-सीमा तोमर

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