तुम इतनी सुंदर कैसे हो?
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हिमगिरि के पर्वत से उतर-उतर,
इठलाती बलखाती सी चलती हो।
श्वेत-धवल पट धारण कर,
सिंधु-सागर के पहलू में गिरती हो।
कभी निर्झर बन बहती,
कल-छल कल-छल।
वीणा-पाणी के वीणा के
झंकारों जैसी हो।
वसुधा! तुम इतनी सुंदर कैसे हो?
कितना अनुपम कितना अलबेला,
चमके अम्बर पर चाँद अकेला।
सितारों के बीच में जैसे ,
रजनी का चितचोर।
किरणों के रथ पर चढ़कर ,
नव-प्रभात में आता दिनकर ।
चाँद छुपे रजनी के ओट में,
जब हो जाती है भोर।
तू जगमग करती चाँदी के,
अलंकारों जैसी हो।
वसुधा!तुम इतनी सुंदर कैसे हो?
श्वेत-धवल हिम-आकच्छादित पर्वत पर।
धरा-गगन आलिंगन में,
दूर क्षितिज पर मिलते दोंनों।
सिन्दूरी आभा सजकर,
अम्बर पर आता है दिनकर।
ये दृश्य कितना विहंगम अद्भुत जैसे हो।
वसुधा !तुम इतनी सुंदर कैसे हो ?
बीच पहाड़ो से निकल कर,
गंगा की धारों में बहती हो।
ऊपर से नीचे चंचल लहरा कर,
शोख अदा से मचलती हो।
सुरीले - स्वर में संगीत मधुर गाती जैसें हो ।
वसुधा !तुम इतनी सुंदर कैसे हो?
🎂समाप्त🎂 स्वरचित और मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखिका: -शशिलता पाण्डेय
Badlavmanch
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