सुप्रसिद्ध कवयित्री सीमा गर्ग मंजरी जी द्वारा ' सिलवटें ' विषय पर सुंदर रचना

सिलवटें ---

आदमी, आदमी को कुछ समझता नहीं,
 रिश्तों में पडी सिलवटें सुलझती नहीं!
न जाने अन्तर में है कैसी सुगबुगाहट ,
रही न वो स्नेहिल लगाव की आहट !
जिंदगी की चादर में सिलवटें,
ऐसे गहराती जा रही हैं!
मन की खाई सुरसा के मुख सी,
मायावी बढती जा रही है !
आज इन्सां की सिकुड़ी हुई श्वांसे हैं,
एक छत के नीचे रिश्तों में मौन बातें हैं!
सहनशीलता धैर्य संस्कार खो गये हैं,
आदमी के वजूद पर अहम के पहरे बो गये हैं !
मतभेद, वैमनस्य सुलझता नहीं,
तकनीकी प्रगति से जमीं पे 
कदम ठहरता नहीं!

आदमी,आदमी को समझता नहीं ,
ठहरी सिलवटें,रुकावटें उर अन्तर 
 मधुरिम मिलन से सुलझाता नहीं !
मन मस्तिष्क में सिलवटें बढ रही है ,
झूठे दम्भी जीवन में कलह गढ रही है !
जिद्दी इन्सां नित नई व्याधियां ढो रहा है,
 अपनत्व की मौत से स्वयं का मन रो रहा है !
ये सिलवटें काया के अन्तर में पडी,
दिखे ये पेशानी पे आडी टेढी खडी !
आन्तरिक दरारों की हलचल से ,
प्रभावित नस, नाडी, तन्तु, पेशी हैं!
भावनाओं का खून हुआ,
कातिल भी अपने हितैषी हैं!
घटी आन्तरिक यन्त्रों की जीवनी शक्ति ,
दिल,जिगर,जान में युद्ध बिगुल छिड़ी!
शनै: शनै: घटती जाती उमरिया है ,
बढती सिलवटे,बढती जाती खाइयां हैं  !
मनीषी इन्सां सोचो, समझ लो अब इक बात,
प्रेम प्यार मुलाकात से आपसी संवाद हो !
 प्रेममयी मंगलमयी श्रेष्ठता की बुनियाद हो!!

✍ सीमा गर्ग मंजरी
मेरी स्वरचित रचना
मेरठ

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