लाल#

सादर समीक्षार्थ 
विषय  -----     लाल
विधा    -    तुकान्तिका


 मेरा लाल अब बड़ा हो गया है 
बड़ी कंपनी में बड़ा अफसर है 
हाँ सभी अब उसे छोटे लगते हैं 
नहीं रही किसी की भी कोई अहमियत
 उसके दिल और दिमाग में अब...।।

 अजब सी शान में रहता है हमेशा
 सभी को बेवकूफ समझता है सदा
जाने क्या सोचता है और... जाने क्या समझता है.. पर हाँ..
 खुद को हमेशा ही सही बताता है..।।

 मैं सोचता हूँ कि कहाँ चूक हो गई  
उसे पालने पोसने में पढ़ाने लिखाने में
 संस्कार प्रदान करने में ..
या ..मैं ही कहीं खो गया हूं..
 किसी शबनमी अंधेरे में ...।।

जो आज भी खुद को उसका
 बाप समझता हूँ..?
 जाने किस युग में जी रहा हूँ..
 या सत्य से दूर होता जा रहा हूँ..।।

सच में मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
 लाल जब बड़ा हो जाता है बाप के 
जूते से बड़ा उसका जूता
 हो जाता है 
तब ..हाँ .. हाँ.. तब
 वह लाल कहाँ रह जाता है ..
वह लाल का लाल महा लाल हो जाता है..।।

 बाप तक तब तक बुढ़ाने लगता है 
डगमगाने लगता है.. असहाय ..लाचार ..सा होने लगता है 
तभी तो उसका लाल उसे कुछ भी 
कह जाता है कुछ नहीं समझता है
 उसे पागल बताता है
 उसे पागल कहता है..।।



 डॉ. राजेश कुमार जैन
 श्रीनगर गढ़वाल
 उत्तराखंड

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