कवि आ.राजीव रंजन जी द्वारा 'रिवाज़ों की बेड़ियां' विषय पर रचना

रिवाज़ों की बेड़ियां 

एक स्त्री के शब्द :—
रिवाज़ों की बेड़ियों में जकड़े रहें ?
परिवार बचाने के नाम पर यातनाएँ सहें ?
जाति-धर्म के ठेकेदारों ने 
बेड़ा-गर्क किया है समाज का,
और दुहाई देते हैं हमें 
मेरे लोक-लाज का ।
हम मर जायें पर कुछ न कहें ?
रिवाज़ों की बेड़ियों में जकड़े रहें ?

प्रथाएँ बनी थी समाज के पोषण के लिए,
परंतु आज इनका उपयोग हो रहा है 
हमारे शोषण के लिए।

हम कुप्रथाओं को छोड़ेंगे,
सदियों की रूढ़ियों को तोड़ेंगे ।
जिन्हें लगता है हम कुछ कर नहीं पाएँगे ,
सफल होकर उन्हें अपनी क्षमता दिखाएँगे।
हमारे हौसलों की उड़ान देख
वे दातों तले उंगलियां दबाएँगे।

©️ राजीव रंजन गया (बिहार)

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1 टिप्पणियाँ

  1. रूढियों में जकड़ी महिलाओं की व्यथा का चित्रण। महिलाएं स्वयं हिम्मत करके ही इन बेड़ियों से आजाद हो हो सकती हैं।

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