*क्यों रोक लेते हो हमें?*
जब भी चाहूँ आगे बढ़ना
जब चाहूँ आकाश मे उड़ना,
एक कोशिश को बड़ा बनाना
अपनी संघर्षों से लड़ना,
तो, क्यों रोक लेते हो हमे?
उन कुरीतियों को संस्कृति बनाकर
उन विडम्बनाओं को आधार भूती बनाकर,
उन देहलीजों को मेरे पैरो की बेड़ी बनाकर
ना जाने, क्यों रोक लेते हो हमे?
कभी बेटी बनाकर
कभी बहन बनाकर,
कभी पत्नी बनाकर
कभी माँ बनाकर,
कैसी उलझनो मे डाल देते हो हमे
बताओ ना, क्यों रोक लेते हो हमे?
जी चाहता है कदम बढ़ाने को
कंधे से कंधा मिलाने को,
अपने पंखो को फैलाने को
फिर, क्यों रोक लेते हो हमे?
क्या डरते हो हमारे विकल्प से?
इस अडिग दृढ़ संकल्प से,
जो मन के अंदर है उस आत्मविश्वास से,
फिर किसकी सौगंध देते हो हमे?
बताओ ना, क्यों रोक लेते हो हमे?
किस समाज से डरते हो
जो हमारे भावनाओं की
कद्र तक नही करती,
समाज हम इंसानो से है
हम समाज से नही,
इसी समाज की धौंस देते हो हमे,
बताओ ना, क्यों रोक लेते हो हमे?
प्रियंका साव
पूर्व बर्धमान, पश्चिम बंगाल
0 टिप्पणियाँ