कौवे करते ये कैसी मीटिंग,
किसी के घर न खाएंगे।
पंडित भी राज़ी न होता,
कैसे श्राद्ध मनाएंगे।
कोरोना का कालचक्र है,
संकट बड़ा ये भारी है।
पूड़ी हलवा हों कितने भी सुन्दर,
पर मन को न ललचाएँगे।
कौवे करते ये कैसी मीटिंग,
किसी के घर न खाएंगे।
इंसा की भी अजब हकीकत,
जीते जी दी रूखी सूखी।
कहीं अस्थियां राह तके हैं,
शमशानों में लटकी खूंटी।
राख अभी तक मटकी पड़ी है,
पर फिर भी श्राद्ध मनाएंगे।
कौवे करते ये कैसी मीटिंग,
किसी के घर न खाएंगे।
काला कुत्ता ढूंढ रहे हैं,
कुछ तो श्राद्ध का वो खा ले।
न सूँघे वो एक निवाला,
चाहें कितना भी तू अजमा ले।
कलयुग घोर चल पड़ा है शायद,
कैसे बेटा बहू बूढ़ों को सह पाएंगे।
कौवे करते ये कैसी मीटिंग,
किसी के घर न खाएंगे।
आडंबर अब बन्द करो,
सेवा बुजुर्ग अविलंब करो।
आखिर मौत है सबको आनी,
काहे को इतना दंभ भरो।
मर कब खाने आते हैं पीतर
जीते जी ही वो खा पाएंगे।
कौवे करते ये कैसी मीटिंग,
किसी के घर न खाएंगे।
पंडित भी राज़ी न होता,
कैसे श्राद्ध मनाएंगे।
अनुराग बाजपेई(प्रेम)
पुत्र स्व०श्री अमरेश बाजपेई
एवं स्व०श्री मृदुला बाजपेई
बरेली (उ०प्र०)
८१२६८२२२०२
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