'मैं एक नन्हीं कली '
चंचल, कोमल, शोख कली
किस बगिया में जाके खिली
माली नेे सींची थी बगिया
तब जाके थी डाली पे पली
शाख का ही एक हिस्सा है
ये समझ सका है क्या कोई
जिसने तोड़ा वह भूल गया
ये कहां रही, और कहां चली
ना जाने अब वह फूल बने
या कि रहे यूं ही मुरझाई सी
अब नियति को मंजूर यही
जिसको ये अब यूं ही मिली
हे भाग्य विधाता तू ही बता
ऐसी किस्मत क्यूं है लिखी
डाली से जुदा होने की यूं
सज़ा कली को क्यूं है मिली
कोमल कली यदि खिले
सुंदर एक फूल सुगंधित हो
महके बगिया जहां जाए
प्रत्येक आंगन सुवासित हों
कली को फूल बन खिलने दो
तन मन हर दिशा महकने दो
खिल उठेगा हर घर आंगन
वन उपवन में खग चहकने दो
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स्वरचित एवं मौलिक रचना:
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका ,रंगकर्मी,एवं कवयित्री, नई दिल्ली
25/09/2020
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9818797390
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