ये सच है.........
फलक़ की जानिब बांह पसारे ,
पुख़्ता ज़मीन पर खड़े थे हम।
तभी पहाड़ों से सैलाब उतरा और
सब कुछ बहाकर ले गया।।
सांसें उखड़ रही थीं तब भी,
हमें यही यकीं था।
इसे मौत नहीं कहते
अभी वो हमसे दूर था।
बाजू थक चुके थे और
साहिल अभी बहुत दूर था ,
आंखें बोझिल थीं लेकिन
हम पर छाया कोई सुरूर था।
तभी किसी तैरती आवाज ने
अचानक हमें बुला लिया ।
पर खड़े किसीअंजान ने
दोनों बाहों में हमें थाम लिया ।।
यह उस दिन की बात है
जो अब तक भूलती नहीं ,
जिंदगी की रफ्तार तब से
मज़े में आगे बढ़ती रही ।।
क्योंकि अब मेरी अनसोई आंखों ने ,
उसी दिन से,
सपने देखना छोड़ दिया।
अब भी समंदर में डूब रही हूं पर ,
मैंने अब , साहिल की आरज़ू
तलाशना छोड़ दिया।।
यह मेरी मौलिक एवं स्वरचित रचना है।
सर्वाधिकार मेरे पास सुरक्षित है।
जयंती सेन 'मीना' नई दिल्ली ।
9873090339.
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