1)उनकी ज़ुल्फ़ों के तसव्वुर में रुबाई लिखता हूँ..
लोग न मानें तो क्या सच्चाई लिखता हूँ..
हूँ बेबाक कि कड़वे-करेले भी बोल जाता हूँ,
उन्हें लगता है कि उनकी बुराई लिखता हूँ....
2.व्यंग्य कविता
*जनवादी साहित्य*
"घटा-सी ज़ुल्फ़ें मनमोहक नयन"
देह-भूगोल के इर्द-गिर्द घूमे कलम,
"ओह!मेरा मन !काश!ऐसा हो जीवन"
"साजन की आँखों में प्यार नज़र आता है"
अगर कविता में इस तरह बस मंझधार नज़र आता है,
तब कवि ढकोसलावादी-चापलूस बेशुमार नज़र आता है..
हाँ, लिख तू अपने मन की बात,
कभी ग़म तो कभी अपने जज़्बात,
पर याद रख अगर गलत मुद्दों पे कभी नहीं की बात,
तो तेरे उजले शब्दों में अभी भी है काली रात,
हाँ, देता हूँ करारा जवाब मैं,
कर व्यंग्य अकर्मण्य देश के कपूतों को,
गोल्डन हों या ब्रांडेड हों,
मैं सिर में नहीं रखता जूतों को..
ये अलग बात है कि मेरे व्यंग्य
समझ नहीं आते साहित्यिक कुकुरमुत्तों को...
काव्य का अभिप्राय सिर्फ़ मनोरंजन नहीं होना चाहिए..
साहित्यवादी होने के दिखावे में जनवाद नहीं खोना चाहिए..
हर मुद्दे पर न लिख पाने के बहाने बंद किये जाएँ..
अपनी क़लम से लोगों की आवाज़ बुलंद किये जाएँ..
नया सीखने के लिए पुराने पुराधाओं को पढ़ा जाये...
दिनकर-नागार्जुन-धूमिल बनकर पुनः जनवादी साहित्य गढ़ा जाये...
दीपक क्रांति
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