गीता पांडेय जी रायबरेली-उत्तरप्रदेश के द्वारा# शानदार रचना#

मजदूर

अपने ही देश में कितना हो गया है मजबूर ये मजदूर।
हो के बेबस दर-बदर की ठोकरें खा रहा है ये मजदूर।

मौत ओढ़े फिर रहा  जान अपनी बचाने को ये मजदूर।
नींद है न चैन है न जिंदगी की आस है कहते ये मजदूर।

पिछड़ा समझ गाँव को किस तरह छोड़े थे ये मजदूर।
ख़ून बहाया जिनके कारखानों में वही छोड़े ये मजदूर।

अपनी बनाई सड़क पर पैदल चल रहे आज ये मजदूर। 
पेट खाली पाँव नंगे आज अभिशाप बन गए ये मजदूर ।

कोई रास्ता नहीं सूझ रहा घर बसाने को सोचे ये मजदूर।
अब तो न शहर के रहे न गाँव के मगरूर हुए ये मजदूर।

मौत तू बची है आजमाने को कह रहे  अब ये मजदूर।
 समझ नहीं पा रहे  कि कहाँ के निवासी हुए ये मजदूर।

रात दिन बच्चों के शरीर मन गल रहे कहते ये मजदूर।
मुबारक तख्तों-ताज आपको गम उठा लेगा ये मजदूर।

पीपल की छाँव सबसे भली आज समझ पाए ये मजदूर।
अपने देश में किस कदर से आज प्रवासी हुए ये मजदूर।
             गीता पांडेय
   रायबरेली-उत्तरप्रदेश

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