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बैलगाड़ी की सवारी
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बड़ा याद आये,
बचपन का जमाना।
छुट्टियों में दादी,
नानी के गांव जाना।
लेकर गाड़ीवान और
बैलगाड़ी आते थे नाना।
बैलगाड़ी सवारी का था,
मजेदार बहाना।
चर्र-चर्र चूँ-चूँ चलती थी,
चाल मतवाली।
कच्ची पगडंडियों पर,
लाल ओहार वाली।
उखड़-खाबड़ रास्तो को भी,
सुगमता से पार करानेवाली।
हौले-हौले डगमग-डगमग,
ये चलती बैलगाड़ी।
जुएं और रस्सियों से,
बंधी बैलों की पीठ पर।
बांस की खप्पचियो से,
निर्मित दो पहियों वाली।
सुगम सवारी कच्ची डगरिया,
या बालू की रेत पर।
सबसे निराली थी,
बैलगाड़ी की सवारी।
बिना तेल,पेट्रोल,
ये गांव की मोटरगाड़ी।
पुराने समय की,
सबसे शाही सवारी।
चाहे दिन हो या रात,
राहे हो घुमावदार,
उखड़-खाबड़ रास्ते भी,
ढोती बोझ भारी।
लगती सपनो सी,
वो बैलगाड़ी की सवारी,
सबकों भाने लगी,
अब महंगी सी कार।
फिर भी उठाए ना,
बैलगाड़ी सा भार।
अब यादों में बसी वो,
बैलगाड़ी की यात्राएं।
जब भी अवसर अपने,
गांव जाने का आये।
प्रदूषण बिना धुंआ उड़ाए,
गढ्ढे और कीचड़ भरी राहे पार कराएं।
वो प्राकृतिक परिदृश्यों का,
सुन्दर अवलोकन कराएं।
कोई खेला नौटंकी या मेला,
सुलभ सवारी थी बैलगाड़ी अकेला।
चाँदनी रातें और पूर्वी बयारें,
ग्रीष्म ऋतु और बैलगाड़ी की सवारी।
बैलगाड़ी ही थी दुल्हन की सवारी,
लाल ओहार और ढकी पर्दे से गाड़ी।
बड़ी मनभावन लगती थी दुल्हन,
पायल की रुनझुन चूड़ियों की खन-खन।
चाहे दूल्हा हो चाहे थे बराती,
ये बैलगाड़ी थी सबके काम आती।
अब तो हुई सब पुरानी कहानी,
जैसे पुरानी हुई नानी की कहानी।
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स्वरचित और मौलिक
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