कवि विक्रम क्रांतिकारी जी द्वारा रचना "" गूंगे बहरे और अंधो अब उठो ""

"" गूंगे बहरे और अंधो अब उठो ""

ये कैसी राम राज गला घोट दिया लोकतंत्र का 
देखो वो एक नही जो बे-आबरू हुई आज रे
क्या हम सबकी रूह बेज़ार नहीं हुई देखकर ?
वो बहन जो लुटी सर-ए-बाज़ार आज साथियों
क्या वो बहन  इज्ज़त की हक़दार नहीं  यारों
कितने ही आज दुर्शाशन खड़े  इस बाजार में 
पर कोई रखवाला गोपाल नहीं नजर आता 
कहां  छुपे हो तुम आज कृष्ण,चौकीदार 
क्यों किया द्रौपदी पे आज उपकार नहीं रे
लुटते मरते सब देख रहे कर रहे सियासत
गांधी के देश में अब कैसा हो गया देश मेरा
देखो ना यहाँ कोई भी शर्म सार नही साथियों
 सिर्फ आबरू नहीं लुटी बल्कि रूह को चिरा है
उसकी आँखों में दहशत है आहो में पीड़ा है
वो शर्मनाक हरक़त वाले उन्हें पाप का अंजाम दो
उसे मौत दो,उसे मौत दो दरिंदे ओ जानवर 
किसी माफ़ी के हक़दार नही साथियों
मिटा सके जो दर्द तेरा वो शब्द कहां से लाऊं
चूका सकूं एहसान तेरा वो प्राण कहां से लाए
खेद हुआ है आज मुझे लेख से क्या होने वाला
लिख सकूं मैं भाग्य तेरा वो हाथ कहां से लाऊं
देखा जो हालत ये तेरा छलनी हुआ कलेजा 
रोक सके जो अश्क मेरे वो नैन कहां से लाए
कैंडल मार्च, आंदोलन करके थक गए हम 
लेकिन वजीर के कानों में जूं तक ना रेगा
ख़ामोशी इतनी  क्यों क्या गूंगे बहरे हो गए सारे
सुना सकूं जो हालत तेरी वो जुबां कहां से लाए
चिल्लाहट पहुँचा सकूं बहरे इन नेताओं को रे
झकझोर सकूं इन गूंगे बहरे और अंधे मूर्दो को
अब  ईश्वर वो मेरे को शक्ति  दे दो  ।।।

कवि विक्रम क्रांतिकारी 

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